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क्रिया योग क्या है ? – What is Kriya Yoga?
क्रिया योग एक प्राचीन ध्यान की तकनीक है, जिससे हम प्राण शक्ति और अपने श्वास को नियंत्रण में ला सकते हैं। यह तकनीक एक व्यापक आध्यात्मिक जीवन का हिस्सा है, जिसमे शामिल हैं अन्य ध्यान कीं तकनीक अवं सात्विक जीवन शैली। क्रिया योग की तकनीक शतकों तक रहस्य में छिपी हुई थी।
यह तकनीक 1861 में पुनरुज्जीवित हुई जब महान संत महावतार बाबाजी ने यह तकनीक अपने शिष्य लाहिड़ी महाशय को सिखाई। लाहिड़ी महाशय ने फिर यह तकनीक अपने शिष्यों को सिखाई, जिनमे से एक स्वामी श्री युक्तेश्वर जी थे, जिन्होंने अपने शिष्यों को यह तकनीक सिखाई, जिनमे से एक परमहंस योगानंद जी थे। (Kriya Yoga in Hindi)
योगानंद जी ने फिर अपनी किताब ‘एक योगी की आत्मकथा’ के द्वारा और पश्चिमी देशों में इसके शिक्षण द्वारा क्रिया योग को प्रचलित किया। (Kriya Yoga in Hindi)
क्रिया योग कैसे काम करता है ? – How does Kriya Yoga work ?
परमहंस योगानंद जी के अनुसार- योग के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए (ईश्वर के साथ एक होना), क्रिया योग आज के ज़माने में मनुष्य को उपलब्ध सबसे प्रभावशाली तकनीक है। क्रिया योग इतना प्रभावशाली इसलिए है क्योंकि वह विकास के स्रोत के साथ प्रत्यक्ष रूप से काम करता है- हमारी मेरुदंड के भीतर आध्यात्मिक शक्ति। (Kriya Yoga in Hindi)
सभी योग कीं तकनीकें इसी शक्ति के साथ काम करतीं है, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से। योगासन, उदाहरण स्वरूप, मेरुदंड के अंदर मार्ग खोलने में मदद कर सकते हैं, एवं मेरुदंड के भीतर की शक्ति को संतुलित कर सकते हैं। योग श्वास-नियंत्रण तकनीक, मतलब प्राणायाम, इस शक्ति को जागरूक करने में मदद कर सकतें हैं।
परन्तु क्रिया योग इनसे अधिक प्रत्यक्ष है। यह तकनीक अभ्यास करने वाले की प्राण-शक्ति को नियंत्रित करने में मदद करती है, उस प्राण-शक्ति को मानसिक रूप से मेरुदंड में ऊपर और नीचे ले जाने के द्वारा, जब इस तकनीक को चेतना और इच्छाशक्ति के साथ किया जाए। (Kriya Yoga in Hindi)
योगानंद जी के अनुसार, एक क्रिया, जिसको करने में आधे मिनट के करीब लगता है, एक साल के कुदरती आध्यात्मिक विकास के बराबर है।
क्रिया योग अपनी प्रभावशीलता में आभ्यासिक है। क्रिया योगी पातें है कि उनकी धारणा शक्ति बढ़ जाती है, ताकि वे व्यापार और गृहस्थ जीवन में प्रभावशाली बन सकें, और हर तरह से अच्छा इंसान बन सकें। (Kriya Yoga in Hindi)
क्रिया योग की उत्पत्ति / क्रिया योग का इतिहास – Origin of Kriya Yoga – History of Kriya Yoga
इस परम्परा का प्रारंभ शिव योग के पारंगत सिद्ध योगियों ने किया | सिद्ध अगस्त्य और सिद्ध बोगनाथ की शिक्षाओं को संश्लेषित कर क्रिया बाबाजी नागराज ने क्रिया योग के वर्तमान रूप का गठन किया | हिमालय पर्वत पर स्थित बद्रीनाथ में सन् 1954 और 1955 में बाबाजी ने महान योगी एस. ए. ए. रमय्या को इस तकनीक की दीक्षा दी |
1983 में योगी रमय्या ने अपने शिष्य मार्शल गोविन्दन को 144 क्रियाओं के अधिकृत शिक्षक बनने से पहले उन्हें अनेक कठोर नियमों का पालन करने को कहा | मार्शल गोविन्दन पिछले 12 वर्षों से क्रिया योग का अनवरत अभ्यास कर रहे थे | प्रति सप्ताह 56 घंटे अभ्यास करने के अतिरिक्त उन्होंने 1981 में श्री लंका के समुद्र तट पर एक वर्ष मौन तपस्या की थी |
गुरु के दिये हुए अतिरिक्त शर्तों को पूरा करने में गोविन्दन जी को तीन वर्ष और लगे | इतना होने पर योगियार ने उन्हें प्रतीक्षा करते रहने को कहा | योगियार अक्सर कहते थे कि शिष्य को गुरु अर्थात बाबाजी के चरणों तक पंहुचा देना भर ही उनका काम था | 1988 में क्रिस्मस की पूर्व संध्या पर गहन आध्यात्मिक अनुभूति के दौरान गोविन्दन जी को सन्देश मिला कि वो अपने शिक्षक के आश्रम और उनका संगठन छोड़ कर लोगों को क्रिया योग में दीक्षा देना शुरू करें | (Kriya Yoga in Hindi)
इसके बाद मार्शल गोविन्दन के जीवन की दिशा गुरु की प्रेरणा से प्रकाशमान हुई | 1989 से उनका जीवन इस नयी दिशा में अग्रसर हुआ | लोगों तक इस शिक्षा को लाने के द्वार खुलते गए, मार्ग प्रशस्त होता गया | इस कार्य में अन्तःप्रज्ञा और अंतर-दृष्टि के माध्यम से गुरु का मार्गदर्शन निरंतर मिलता रहा | गोविन्दन जी ने मोंट्रियल में ही साप्ताहांत में क्रिया योग सिखलाना शुरू किया |
क्रिया योग पर उनकी पहली पुस्तक का प्रकाशन 1991 में हुआ और इसके बाद वे सारी दुनिया में कई जगहों पर साप्ताहांत दीक्षा शिविर आयोजित करने लगे | तब से गुरु के प्रकाश से ज्यादा से ज्यादा लोगों को आलोकित करना ही उन्हें आनंदित करता है | अब तक 20 से अधिक देशों में फैले हुए 10,000 से ज्यादा लोग आध्यात्म कि इस बहुमूल्य वैज्ञानिक प्रणाली से जुड़ चुके हैं | उन्होंने क्रिया योग के 16 शिक्षकों को भी प्रशिक्षित किया है | (Kriya Yoga in Hindi)
भारत देश के आत्म जागृत संतों ने क्रियायोग के आध्यात्मिक विज्ञान की खोज बहुत पुराने समय में ही कर ली थी। भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने इसकी महिमा का वर्णन किया है। ऋषि पतंजलि ने अपने योग सूत्र में इसका उद्घाटन किया है। परमहंस योगानन्दजी ने कहा है कि यह ध्यान की पुरातन विधि जीसस क्राइस्ट व उनके शिष्यों सेंट जॉन, सेंट पॉल और दूसरे शिष्यों को भी ज्ञात थी।
कलयुग के दौरान तमोगुण की प्रधानता वश कई शताब्दियों तक क्रियायोग लुप्त रहा। आधुनिक काल में महावतार बाबाजी ने इसका फिर से परिचय करवाया, जिनके शिष्य लाहिड़ी महाशय (वर्ष 1828 से 1895) पहले व्यक्ति थे जिन्होंने हमारे युग में इसके विषय में खुलकर बताया। बाद में बाबाजी ने लाहिड़ी महाशय के शिष्य स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरी (वर्ष 1855 से 1936) को परमहंस योगानन्दजी को यह योग विज्ञान सिखाने और पश्चिम जगत में जाकर सारे संसार को यह विधि सिखाने का आदेश दिया। (Kriya Yoga in Hindi)
परमहंस योगानन्दजी को उनके पूजनीय गुरुओं ने क्रियायोग का पुरातन विज्ञान सारे विश्व को सिखाने के लिए चुना था और इसी उद्देश्य से उन्होंने योगदा सत्संग सोसाइटी की भारत में 1917 में और अमेरिका में सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फे़लोशिप की 1920 में स्थापना की।
जो विज्ञान पुराने समय में केवल कुछ समर्पित, निष्ठावान, जितेंद्र शिष्यों को ही सिखाया जाता था जो एकांत में रहकर संन्यासियों का जीवन व्यतीत करते थे, वह आधुनिक समय में भारत के महान गुरुओं ने सबको उपलब्ध कराया है, परमहंस योगानन्दजी एवं उनके द्वारा स्थापित संस्थाओं के माध्यम से (योगदा सत्संग सोसाइटी एवं सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फे़लोशिप)। (Kriya Yoga in Hindi)
योगानन्दजी ने लिखा है : “1920 में मेरे अमेरिका आने से पहले मुझे आशीर्वाद देते समय महावतार बाबाजी ने मुझसे कहा था कि मुझे इस पवित्र कार्य के लिये चुना गया था : ‘मैंने तुमको पाश्चात्य जगत् में क्रियायोग का प्रसार करने के लिये चुना है।
बहुत वर्ष पहले मैं तुम्हारे गुरु युक्तेश्वर से एक कुम्भ मेले में मिला था; तब मैंने उनसे कहा था कि मैं तुम्हें उनके पास प्रशिक्षण के लिये भेजूंगा।’ बाबाजी ने तब भविष्यवाणी की थी : ‘ईश्वर-साक्षात्कार की वैज्ञानिक प्रविधि, क्रियायोग का अन्ततः सब देशों में प्रसार हो जायेगा और मनुष्य को अनन्त परमपिता के व्यक्तिगत इन्द्रियातीत अनुभव द्वारा यह राष्ट्रों के बीच सौमनस्य-सौहार्द्र स्थापित कराने में सहायक होगा।’ ” (Kriya Yoga in Hindi)
क्रिया योग का विज्ञान – Science of Exercise
योग मार्ग में सफलता पाने के लिए सबसे तीव्र और सबसे अधिक प्रभावशाली विधि जो सीधे उर्जा और चेतना का प्रयोग करती है। यह सीधा मार्ग है जो आत्मज्ञान के एक विशेष तरीके पर बल देता है जिसे परमहंस योगानन्दजी ने सिखाया है। विशेषतया, क्रिया राजयोग की एक ऐसी विकसित विधि है जो शरीर में प्रवाहित होने वाली ऊर्जा की धारा को सशक्त और पुनर्जीवित करती है जिससे हृदय और फेफड़ों की सामान्य गतिविधि स्वाभाविक रूप से धीमी हो जाती है।
इसके फलस्वरूप चेतना, बोध के उच्चतर स्तर पर उठने लगती है जो क्रमशः धीरे-धीरे अंतः करण में आंतरिक जागृति लाती है जो मन एवं इंद्रियों से प्राप्त होने वाले सुख के भाव से कहीं अधिक आनंदमय व गहरा आत्मसंतोष प्रदान करने वाली होती है। सभी धर्म ग्रंथ यह उपदेश देते हैं कि मनुष्य एक नाशवान शरीर नहीं है, बल्कि एक जीवंत अमर आत्मा है।
प्राचीन काल से मानवता को प्रदान किया गया क्रियायोग उस राजमार्ग का उद्घाटन करता है जो शास्त्रों में वर्णित सत्य को सिद्ध करता है। क्रियायोग के विज्ञान का निष्ठा के साथ अभ्यास करने की अद्भुत क्षमता के विषय में परमहंस योगानन्दजी ने घोषणा की थी; “यह गणित की तरह काम करता है; यह कभी असफल नहीं हो सकता।” (Kriya Yoga in Hindi)
क्रिया योग की उपयोगिता – Usefulness of Kriya Yoga
बाबाजी का क्रिया योग दीक्षा शिविर में क्रमशः किया जाता है | व्यक्ति के सर्वांगीन उन्नति के लिये क्रिया योग के विभिन्न तकनीकों की शिक्षा क्रमबद्ध तरीके से दी जाती है | कई प्रकार के इन तकनीकों के निष्ठापूर्वक अभ्यास से साधक में एक अमूल परिवर्तन आता है |
इनसे मिलने वाले अनेक लाभों में हैं रोग मुक्ति और स्फूर्ति, भावनात्मक संतुलन, मानसिक शांति, तीक्ष्ण एकाग्रता, अन्तःप्रेरणा, ज्ञान एवं आध्यात्मिक आत्म-साक्षात्कार | इन क्रियाओं के दैनिक अभ्यास से अपार बल, स्थैर्य और शांति की प्राप्ति तो होती ही है, साथ ही साधक उद्द्यमी एवं भविष्यद्रष्टा भी बनता है |
यह विच्छिन्नता और जड़ता दोनों ही को दूर कर मन और शरीर में संतुलन एवं शांति लाता है | शरीर, मन और आत्मा का कायाकल्प करने के इच्छुक सभी के लिये ये उपयुक्त है | यह उन सब के लिये है जो अपनी आत्मा से अंतरंग होने के लिये प्रयत्नशील हैं | और यह उन सभी लोगों के लिये भी है जो येसुमसीह के बताये गए “स्वर्ग के वैभव” को पृथ्वी पर ही पा लेने को तत्पर हैं |
यह उन सब के लिये है जो अपने जीवन को हर्षोउल्लास से भरना चाहते हैं और उसे अपने सम्बन्ध में आने वालों के साथ में बाँटना चाहते हैं | ये सबों के लिये सामान प्रभावशाली है चाहे वो स्त्री हो या पुरुष, चाहे बालक हों या वृद्ध, कोई पूर्वानुभव हो या ना हो | इसके अभ्यास के लिये जाति, धर्मं और भाषा का कोई भेद नहीं है |, (Kriya Yoga in Hindi)
क्रिया योग के अनुसार जीवन अपने अनुकूल समय पर एक साथ घटती हुई अनेकों घटनाओं की श्रृंखला है | इनमे से कोई घटना सुखद होती है और कोई दुखद | क्रिया योग में सिखाए गए आसन, प्राणायाम, मंत्र और ध्यान के अभ्यास से साधक की ऊर्जा और सजगता प्रखर होती हैं और इसी कारण साधक हरेक परिस्थिति में कुछ सीखने का और विकास का अवसर देखता है | (Kriya Yoga in Hindi)
क्रिया योग भौतिक, प्राणिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक प्रत्येक स्तर पर की गयी साधना है जो साधक को उसके सच्चे स्वरुप की याद दिलाती है | वह रूप जो शरीर और मन की गतिविधियों से अपने अहं की पहचान छोड़कर शुद्ध शाक्षी भाव में स्थित होता है | इस साधना से व्यक्ति अपना जीवन अपने इच्छानुसार बनाता है |
आत्मनियंत्रण के बढ़ने के साथ साथ कर्ता भाव को त्याग कर जीवन के हर रूप का आनंद लेता है | क्रिया योग से ईश्वर का निरंतर सान्निध्य पाकर साधक आस्था, विनय एवं भक्ति से परिपूर्ण होता है | वह ईश्वर को ही भजता है, ईश्वर का ध्यान करता है, ईश्वर से किसी प्रिय सखा की तरह बातंय करता है और ईश्वर के वचन भी सुन पाता है | (Kriya Yoga in Hindi)
क्रिया योग से मानसिक स्पष्टता और एकनिष्ठता पाकर साधक आसानी से न सिर्फ अपने लिये बल्कि दूसरों के लिये भी सही और श्रेयस मार्ग पा जाता है | शुद्ध दृष्टि और प्रखर बुद्धि से युक्त यह साधक अपनी चेतना का विस्तार कर हर तरह के कार्य अनायास ही संपन्न कर पाता है | अपनी उपलब्धियों का श्रेय वह स्वयं नहीं लेता और सबकुछ करने वाले महान कर्ता, ईश्वर के प्रति कृतज्ञ रहता है। (Kriya Yoga in Hindi)
क्रिया योग के तकनीक हमारी अन्तःप्रज्ञा और रोग निवारण की शक्ति को सुदृढ़ करते हैं | हमारी प्रतिरक्षी तंत्र को मजबूत कर यह चुस्ती, फूर्ती, उत्तम स्वास्थ्य, सबल स्नायु तंत्र और शक्ति के साथ हमें सहज और शांत व्यक्तित्व प्रदान करता है | (Kriya Yoga in Hindi)
शरीर और मन और आत्मा के बीच तारतम्य स्थापित कर क्रिया योग हमारी कुण्डलिनी में निहित दिव्य चेतना एवं शक्ति को जाग्रत करता है | हम कैसा जीवन जीते हैं वह इस बात पर निर्भर करता है कि हमारी चेतना किस स्तर तक पहुँची है | अस्तित्व के नए आयामों के द्वार खोलने के लिये अपनी आध्यात्मिक चेतना का विकास करना अत्यंत आवश्यक है | इसके बाद ही हम उस चेतना को अपने जीवन के गतिविधियों से जोड़ कर अपने इर्द-गिर्द सकारात्मक प्रभाव डाल सकते हैं | (Kriya Yoga in Hindi)
क्रिया योग का अभ्यास कैसे करे – How to Practice Kriya Yoga
क्रिया योग पारंपरिक रूप से गुरु-शिष्य परंपरा के माध्यम से ही सीखा जाता है। साधक इसे आस योग की तरह नहीं ले सकता है। क्रिया योग (Kriya Yoga) में साधक की दीक्षा के बाद उन प्राचीन कठोर नियमों में निर्देशित किया जाता है जो गुरु से शिष्य संचारित योग कला को नियंत्रित करते हैं। योगानंद के जरिए इस क्रिया योग को विस्तार से वर्णित किया गया है। (Kriya Yoga in Hindi)
क्रिया योगी के माध्यम से आप अपनी जीवन ऊर्जा को मानसिक रूप से नियंत्रित कर सकते हैं। मनुष्य के संवेदनशील रीढ़ की हड्डी के इर्द-गिर्द उर्जा के डेढ़ मिनट का चक्कर उसके विकास में तीव्र प्रगति ला सकता है। है योगानंद ऐसा मानना है कि आधे मिनट का क्रिया योग प्रभाव वर्ष के प्राकृतिक आध्यात्मिक विकास के बराबर होता है। स्वामी सत्यानन्द के क्रिया उद्धरण में वर्णन है कि क्रिया साधना को ऐसा माना जा सकता है कि जैसे यह आत्मा में रहने की पद्धति है। (Kriya Yoga in Hindi)
क्रिया योग के लाभ – Benefits of Kriya Yoga
क्रिया योग के कई लाभ हैं, जिनमें से हम कुछ यहां दे रहे हैं। जो इस प्रकार हैं –
- क्रिया योग के अभ्यास से साधक अपने आत्मा को साध लेता है। इसके साथ ही वह अपने ज्ञानेंद्रियों को साधने मे कामयाब होगा। (Kriya Yoga in Hindi)
- इससे आपको मानसिक राहत मिलती है। अवसाद से आपको छुटकारा मिलता है। (Kriya Yoga in Hindi)
- क्रिया योग के अभ्यास से साधक के रोग प्रतिरोधक क्षमता में बुद्धि होती है। इससे शरीर कई तरह के रोग से लड़ने में सक्षम बनता है। (Kriya Yoga in Hindi)
- साधक परम सत्य को जानने में सक्षम होता है। मोह माया से परे हो जाता है। (Kriya Yoga in Hindi)
- ऐसे जातक अपने परमात्मा में ध्यान लगाने में सामर्थवान बनाता है। उसे सिद्धि मिलती है। (Kriya Yoga in Hindi)
- जातक शारीरिक बंधन से मुक्त होकर आत्मा व परमात्मा में भेद कर पाता है। (Kriya Yoga in Hindi)
- व्यक्तित्व का समग्र विकास होता है। ज्ञानी से साथ ही व तार्किक भी बनता है। (Kriya Yoga in Hindi)
- क्रिया योग (Kriya Yoga) साधक को उसके जीवन का उद्देश्य प्राप्त करने में सहयोग करता है। (Kriya Yoga in Hindi)
क्रिया योग के प्रकार – Types of Verb Yoga
क्रियायोग के तीन प्रकार महर्षि पतंजलि ने बताये है।
- तप
- स्वाध्याय
- ईष्वर प्रणिधान
तप
तप का तात्पर्य बेहतर अवस्था की प्राप्ति के लिए परिवर्तन या रूपान्तरण की एक प्रक्रिया के अनुगमन से है। सामान्य अर्थ में, तप पदार्थ के शुद्ध सारतत्व को प्राप्त करने की एक प्रक्रिया है। उदाहरण हेतु जिस प्रकार सोने को बार-बार गर्म कर छोटी हथोड़ी से पीटा जाता है जिसके परिणाम स्वरूप शुद्ध सोना प्राप्त हो सके। उसी प्रकार योग में तप एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति की अशुद्धियों को जला कर भस्म किया जाता है ताकि उसका असली सारतत्व प्रकट हो सके। (Kriya Yoga in Hindi)
महर्षि पतंजलि के अनुसार ‘‘तप से अशुद्धियों का क्षय होता है तथा शरीर और इन्द्रियों की शुद्धि होती है।’’
‘‘कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात्तपस:।’’ (पा.यो.सू. 2.43)
जिस प्रकार अश्व-विद्या में कुशल सारथि चंचल घोड़ों को साधता है उसी प्रकार शरीर, प्राण, इन्द्रियों और मन को उचित रीति और अभ्यास से वशीकार करने को तप कहते हैं, जिससे सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, सुख-दु:ख, हर्ष-शोक. मान-अपमान आदि सम्पूर्ण द्वन्द्वों की अवस्था में बिना किसी कठिनाई के स्वस्थ शरीर और निर्मल अन्त:करण के साथ मनुष्य योगमार्ग में प्रवृत्त रह सके।
तप तीन प्रकार का होता है- शारीरिक, वाचिक व मानसिक। फल को न चाहने वाले निष्काम भाव से योगी पुरुषों द्वारा परम श्रद्धा से किया हुआ तप सात्विक होता है। इसके विपरीत जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए अथवा केवल पाखण्ड से किया जाता है वह अनिश्चित और क्षणिक फलवाला होता है। (Kriya Yoga in Hindi)
अपने वर्ण, आश्रम, परिस्थिति और यौग्यता के अनुसार स्वधर्म का पालन करना और उसके पालन में जो शारीरिक या मानसिक अधिक से अधिक कष्ट प्राप्त हो, उसे सहर्ष सहन करना इसका नाम तप है। व्रत, उपवास आदि भी तप की ही श्रेणी में आते हैं। निष्काम भाव से इस तप का पालन करने से मनुष्य का अन्त:करण अनायास ही शुद्ध हो जाता है। (Kriya Yoga in Hindi)
‘तपो द्वन्द्वसहनम्’ अर्थात् सब प्रकार के द्वन्द्वों को सहन करना तप है। ये द्वन्द्व शारीरिक, मानसिक और वाचिक किसी भी श्रेणी के हो सकते हैं। तप के न होने पर साधक तो क्या सामान्य जन भी कुछ प्राप्त नहीं कर सकते। तप हर क्षेत्र में परम आवश्यक है। योग साधना में सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास, आलस्य, अहंकार, जड़ता आदि द्वन्द्वों को सहन करना और कर्तव्यमार्ग पर आगे बढ़ते रहना ही तप है। (Kriya Yoga in Hindi)
आध्यात्मिक जगत् में तप के महत्त्व को बताते हुए तैत्तिरीयोपनिषद् की भृगुवल्ली में कहा गया है ‘‘तपसा ब्रह्म विजिज्ञासत्व। तपो ब्रह्मेति’’ अर्थात् तप द्वारा ही ब्रह्म को जाना जा सकता है। तप ही ब्रह्म है। गीता में भी वर्णन मिलता है यथा-
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदु:खदा:।
अगमापायिनोSनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।। गीता 2.14
अर्थात् सर्दी गर्मी और सुख-दु:ख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति, विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिये इनको सहन करना उचित है। सहिष्णुता महाफल प्रदान करती है। सर्दी-गर्मी, सुख-दु:ख इन सबका सम्बन्ध नित्य का नहीं है, ये सदैव नहीं रहेंगे, अर्थात् अल्पकालिक हैं। जब तक संयोग है तभी तक दु:ख है या यूँ कहें दु:ख या सुख की प्रतीति होती है। संयोग, वियोग अस्थिर और अनित्य हैं। कोई भी सदा नहीं रहेगा। अत: इन क्षणिक संयोगो, वियोगो के लिए प्रतिक्रिया करना उचित प्रतीत नहीं होता, इन प्रतिक्रियाओं का त्याग ही तप है। कहा गया है कि ‘‘नातपस्विनो: योग सिद्धति’’ अर्थात् तप के बिना योग सिद्ध नहीं होता है। (Kriya Yoga in Hindi)
संसार में जो भी कार्य दु:साध्य है, अति दुष्कर है, कठिन जान पड़ता है, ऐसे दु:साध्य कायोर्ं को एकमात्र तप के द्वारा ही अनायास सिद्ध किया जा सकता है। यथा-
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदु:खदा:।
अगमापायिनोSनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।। गीता 2.14
अर्थात् सर्दी गर्मी और सुख-दु:ख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति, विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिये इनको सहन करना उचित है। सहिष्णुता महाफल प्रदान करती है। सर्दी-गर्मी, सुख-दु:ख इन सबका सम्बन्ध नित्य का नहीं है, ये सदैव नहीं रहेंगे, अर्थात् अल्पकालिक हैं।
जब तक संयोग है तभी तक दु:ख है या यूँ कहें दु:ख या सुख की प्रतीति होती है। संयोग, वियोग अस्थिर और अनित्य हैं। कोई भी सदा नहीं रहेगा। अत: इन क्षणिक संयोगो, वियोगो के लिए प्रतिक्रिया करना उचित प्रतीत नहीं होता, इन प्रतिक्रियाओं का त्याग ही तप है। कहा गया है कि ‘‘नातपस्विनो: योग सिद्धति’’ अर्थात् तप के बिना योग सिद्ध नहीं होता है। (Kriya Yoga in Hindi)
संसार में जो भी कार्य दु:साध्य है, अति दुष्कर है, कठिन जान पड़ता है, ऐसे दु:साध्य कायोर्ं को एकमात्र तप के द्वारा ही अनायास सिद्ध किया जा सकता है। यथा –
यद् दुष्करं दुराराध्यं दुर्जयं दुरतिक्रमम्।
तत्सवर्ं तपसा साध्या तपो हि दुरतिक्रमम्।।
तप के सम्बन्ध में कूर्मपुराण में कहा गया हैकृ ‘तपस्या से उत्पन्न योगाग्नि शीघ्र ही निखिल पाप समूहों को दग्ध कर देती है। उन पापों के दग्ध हो जाने पर प्रतिबन्धक रहित तारक ज्ञान का उदय हो जाता है। स्वामी विज्ञानान्द सरस्वती कूर्मपुराण के इस उदाहरण को आधार बनाकर आगे कहते हैं कि जिस प्रकार बन्धन रज्जु को काटकर श्येन (बाज) पक्षी आकाश में उड़ जाता है, ठीक उसी प्रकार जिस योगी पुरुष का बन्धन टूट जाता है उसका संसार बन्धन सदा के लिये छूट जाता है।
इस प्रकार संसार बन्धन से मुक्त हुआ पुरुष पुन: बन्धन में नहीं बन्धता है। यह उसी प्रकार है जिस प्रकार डण्ठल से पृथक् हुआ फल पुन: डण्ठल से नहीं जुड़ सकता है। अत: शास्त्र के कथनानुसार मोक्ष साधनाओं में से तप को श्रेष्ठतम साधना माना गया है। (Kriya Yoga in Hindi)
तप के प्रकार
गीता में 17वें अध्याय में तप के तीन भेद किये गये हैं-
- शारीरिक
- वाचिक
- मानसिक
इसके पश्चात् इन तीन के भी तीन और भेद किये हैं-
- सात्विक,
- राजसिक और
- तामसिक।
शारीरिक तप-
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते।। श्रीमद्भगवद्गीता 17.14
अर्थात् देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा यह शरीर सम्बन्धी तप है। महर्षि पतंजलि ने सूत्र 2.46 में आसन, 2.49 में प्राणायाम की बात की है। वह भी शारीरिक तप के अन्तर्गत वर्णित किया जा सकता है। आसन आदि के अन्तर्गत आहार संयम की बात भी आ जाती है। यथा- गीता 6.16
नात्यश्नतस्तु योगोSस्ति न चैकान्तमनश्नव:।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।।
हे अर्जुन! यह योग न तो बहुत खाने वाले का, न बिल्कुल न खाने वाले का, न बहुत शयन करने वाले का और न सदा जागने वाले का ही सिद्ध होता है। युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। युक्तस्वप्नवबोधस्य योगो भवति दु:खहा॥ श्रीमद्भगवद्गीता 6.17 दु:खों का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करने वाले का, कमोर्ं में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है। यहाँ दु:खों से तात्पर्य केवल सांसारिक दु:खों से नहीं वरन् उन सभी प्रकार के दु:खों से है जो कि अविद्या जनित हैं। अविद्या अर्थात् वास्तविक दु:ख को सुख समझना, पाप को पुण्य समझना, अवास्तविक को वास्तविक समझना। त्रिताप भी तो दु:ख ही हैं। (Kriya Yoga in Hindi)
वाचिक तप-
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।स्वाध्यायाभ्यासनं चौव वाड़्मयं तप उच्यते।। श्रीमद्भगवद्गीता 17.15
मन को उद्विग्न न करने वाले, प्रिय तथा हितकारक वचनों और स्वाध्याय के अभ्यास को वाचिक तप कहते हैं। कटु वचन, झूठ, हिंसक वाक्य, निन्दा-चुगली आदि वचन दूसरे के मन को तो उद्वेलित करते ही हैं परन्तु इन वाक्यों का सबसे अधिक प्रभाव बोलने वाले के मन व प्राण पर पड़ता है।
उद्वेलित करने वाले वचनों से जो तरंगें उत्पन्न होती हैं वे वातावरण में हलचल उत्पन्न करके पुन: कहीं अधिक वेग से लौटती हैं व उत्पन्न कर्ता के मन व प्राण को क्षीण व कमजोर कर देती है। लगातार इसी प्रकार की तरंगें प्रवाहित करने वाले लोग सुखी नहीं देखे गये हैं। वे स्वयम् के साथ-साथ सम्पूर्ण वातावरण को दूषित कर देते हैं व समाज से तो तिरस्कार झेलते ही हैं स्वयम् में आत्मग्लानि एवं कुण्ठित जीवन यापन करने पर मजबूर हो जाते हैं। अत: इन तरंगों को उत्पन्न न करने का मानसिक संकल्प, साहस व –ढ़ इच्छाशक्ति ही तप है। (Kriya Yoga in Hindi)
प्रिय तथा हितकारी वचन स्वयम् व दूसरों को साम्यावस्था में बनाये रखने के लिये बोलने चाहियें। यहाँ यह ध्यान रखने व समझने की बात है कि प्रिय वचन से तात्पर्य चापलूसी करना नहीं है। ‘‘सत्यं बु्रयात् प्रियं बु्रयात्न बु्रयात् सत्यमप्रियम्’’ का सिद्धान्त यहाँ ध्यान रखने योग्य है। (Kriya Yoga in Hindi)
स्वाध्याय अर्थात् श्रेष्ठ पुस्तकों का अध्ययन यदि इसके आध्यात्मिक अर्थ की ओर संकेत करें तो ‘स्वाध्याय’ का तात्पर्य ‘स्वयम् का अध्ययन’ करना है। इसके सम्बन्ध में आप स्वाध्याय शीर्षक में विस्तारपूर्वक जानेंगे। (Kriya Yoga in Hindi)
मानस तप –
मन: प्रसाद: सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रह:।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।। श्रीमद्भागवद्गीता 17.16
मन की प्रसन्नता, शान्तभाव, भगवच्चिन्तन करने का स्वभाव, मन का निग्रह और अन्त:करण के भावों की भलीभाँति पवित्रता- इस प्रकार यह मन सम्बन्धी तप कहा जाता है। मानसिक तप की यह स्थिति निश्चित ही पूर्वोक्त वर्णित शारीरिक, वाचिक तपों के उपरान्त अधिक आसान हो जाती है।
वास्तव में शारीरिक, वाचिक और मानसिक तप एक साथ ही किये जाते हैं। ऐसा नहीं है कि पहले केवल साधक शारीरिक स्तर पर ही तप हेतु प्रस्तुत हो, वस्तुत: लगभग साथ-साथ ही ये अवस्थायें सम्पादित होती रहती हैं। मन की प्रसन्नता, शान्तभाव, भगवत् चिन्तन आदि अवस्थायें केवल सोचनेभर नहीं आती वरन् सतत् प्रयास से प्राप्त होती हैं और यही प्रयास तप कहलाता है। (Kriya Yoga in Hindi)
सात्विक तप –
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरै:। अफलाकांक्षिभिर्युक्तै: सात्विकं परिचक्षते।। श्रीमद्भगवद्गीता 17.17
मनुष्य का फल की आशा से रहित परम श्रद्धा तथा योगयुक्त होकर इन तीनों प्रकार के तपों को करना सात्विक तप कहलाता है। शारीरिक तप, वाचिक तप और मानस तप को फल की आशा से रहित परम श्रद्धा तथा एक साधक की भाँति करानौ ही सात्विक तप कहलाता है। (Kriya Yoga in Hindi)
राजसिक तप –
सत्कारमानपूजाथर्ं तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्।। श्रीमद्भगवद्गीता 17.18
सत्कार, मान, पूजा व पाखण्ड पूर्वक किया गया तप चंचल और अस्थिर राजस तप कहलाता है।
तामसिक तप –
मूढ ग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तप:।
परस्योत्सादनाथर्ं वा तत्तामसमुदाहृतम्।। श्रीमद्भगवद्गीता 17.19
जो तप मूढ़तापूर्वक हत से, मन, वाणी और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिये किया जाता है, वह तप तामस कहा जाता है। तप वास्तव में शरीर, मन, वाणी, विचारों का सही सामंजस्य है जो कि तत्व को जानने में सीड़ी का कार्य करता है। क्रियायोग का अध्ययन करते हुये अव आप आगे स्वाध्याय के विषय में विस्तार पूर्वक ज्ञान प्राप्त करेंगे। (Kriya Yoga in Hindi)
स्वाध्याय
वेद, उपनिषद्, पुराण आदि तथा विवेकज्ञान प्रदान करने वाले सांख्य, योग, आध्यात्मिक शास्त्रों का नियम पूर्वक अध्ययन तथा अन्य सभी वे साधन जो कि विवेक ज्ञान में सहायक हैं जैसे अन्य धर्मग्रन्थ, श्रेष्ठ पुस्तकें आदि का अध्ययन, मनन स्वाध्याय कहलाता है।
स्वाध्याय के सम्बन्ध में पं. श्रीरामशर्मा आचार्य का कथन है कि ‘‘श्रेष्ठ पुस्तकें जीवन्त देव प्रतिमाएँ हैं। जिनके अध्ययन से तुरन्त उल्लास और प्रकाश मिलता है।’’
श्रीमान् शान्ति प्रकाश आत्रेय के अनुसार ‘स्वाध्याय निष्ठा जब साधक को प्राप्त हो जाती है तब उसके इच्छानुसार देवता, ऋषियों तथा सिद्धों के दर्शन होते हैं तथा वे उसको कार्य सम्पादन में सहायता प्रदान करते हैं। (Kriya Yoga in Hindi)
आचार्य उदयवीर शास्त्री जी के अनुसार, इस पद के दो भाग हैं- ‘स्व’ और ‘अध्ययन’। स्व पद के चार अर्थ हैं- आत्मा, आत्मीय अथवा आत्मसम्बन्धी, ज्ञाति (बन्धु-बान्धव) और धन।
अध्ययन अथवा अध्याय कहते हैं- चिन्तन, मन अथवा पूर्वोक्त अध्ययन।
आत्मविषयक चिन्तन व मनन करना, तत्सम्बन्धी ग्रन्थों का अध्ययन तथा ‘प्रणव’ आदि का जप करना ‘स्वाध्याय’ है। द्वितीय अर्थ में आत्मसम्बन्धी विषयों का चिन्तन मनन करना। आत्मा का स्वरूप क्या है? कहाँ से आता है? इत्यादि विवेचन से आत्मविषयक जानकारी के लिये प्रयत्नशील रहना। तृतीय अथोर्ं में जाति बन्धुबान्धव आदि की वास्तविकता को समझकर मोहवश उधर उत्कृष्ट न होते हुये विरक्त की भावना को जाग्रत रखना स्वाध्याय है। (Kriya Yoga in Hindi)
चतुर्थ अर्थ में धन-सम्पत्ति आदि की ओर अधिक आकृष्ट न होना, लोभी न बनना। धन की नश्वरता को समझते हुये केवल सामान्य निर्वहन योग्य धन कमाना व उपयोग करना अधिक संग्रह न करना, मठाधीश आदि बनने की इच्छा न रखना ही चौथे प्रकार का अर्थ है।
स्वाध्याय स्वयं का अध्ययन है जिसमें हम सहायता पुस्तकों, ग्रन्थो आदि की लेते हैं। स्वयं को समझना, गुण-अवगुण बनाये रखना व आत्मतत्व की प्राप्ति ही स्वाध्याय का उद्देश्य है।
आगे आप ईश्वर प्रणिधान विषयक ज्ञान प्राप्त करेंगे। (Kriya Yoga in Hindi)
ईश्वरप्रणिधान
अपने समस्त कमोर्ं के फल को परम गुरु परमात्मा को समर्पित करना व कर्मफल का पूर्ण रूपेण त्याग कर देना ईश्वर-प्रणिधान है। अनन्य भक्ति भाव से ईश्वर का मनन चिन्तन करनाय अपने आपको पूर्णरूपेण ईश्वर को समर्पित कर देना ही ईश्वरप्रणिधान है। जब साधक अपने कर्मफल का त्याग करता है तो निश्चित रूप से वह जो भी कार्य करता है वह स्वार्थ रहित, पक्षपात रहित कार्य करता है।
उसका चित्त निर्मल हो जाता है और वह साधनापथ पर निर्बाध गति से आगे बढ़ता जाता है। उसके मन में राग-द्वेश जैसी भावनाएँ जगह नहीं बनाती हैं जिससे साधक की भूमि –ढ़ हो जाती है। श्रीमत् शान्ति प्रकाश आत्रेय जी के अनुसार ईश्वरप्रणिधान ईश्वर को एक विशेष प्रकार की भक्ति है, जिसमें भक्त शरीर, मन, इन्द्रिय, प्राण आदि तथा उनके समस्त कमोर्ं को उनके फलों सहित अपने समस्त जीवन को ईश्वर को समर्पित कर देता है। (Kriya Yoga in Hindi)
शय्याSसनस्थोSथ पथि प्रणन्वा स्वस्थ: परिक्षीणवितर्कजाल:।
संसारबीजक्षयमीक्षमाण: स्यन्नित्ययुक्तोSमृतभोगभागी।।(योग व्यासभाष्य 2.32)
अर्थात् जो योगी शय्या तथा आसन पर बैठे हुये, रास्ते में चलते हुये अथवा एकान्त में रहता हुआ हिंसादि वितर्क जाल को समाप्त करके ईश्वर प्रणिधान करता है, वह निरन्तर अविद्या आदि को जो कि संसार के कारण हैं नष्ट होने का अनुभव करता हुआ तथा नित्य ईश्वर में युक्त होता हुआ जीवन-मुक्ति के नित्य सुख को प्राप्त करता है। श्रीमद्भगवद्गीता के 3.27 व 2.47 में ईश्वर प्रणिधान की ही व्याख्या हुई है। स्वयं भगवान् कहते हैं कि ‘सभी कर्म मुझको समर्पित कर दो।’ साधक के ऐसा करने पर कर्म शुभाशुभ की श्रेणी से पार चले जाते हैं एवं साधक ईश्वरत्व की ओर उन्मुख हो जाता है।
ईश्वरप्रणिधान से शीघ्र समाधि की सिद्धि होती है। ईश्वरप्रणिधान भक्ति विशेष है और इस भक्तिविशेष के कारण मार्ग कंटकविहीन हो जाता है और शीघ्र ही समाधि की प्राप्ति हो जाती है। योग के अन्य अंगों का पालन विघ्नों के कारण बहुत काल में समाधि सिद्धि प्रदान कराता है। ईश्वरप्रणिधान उन विघ्नों को नष्ट कर शीघ्र ही समाधि प्रदान करता है। अत: यह रास्ता अति महत्त्वपूर्ण है। (Kriya Yoga in Hindi)
योगदर्शन में ईश्वर की सत्ता को स्वीकार किया जाता है। योगदर्शन का आधार सांख्य है जहाँ कि ईश्वर की सत्ता का कहीं वर्णन नहीं है। परन्तु योगदर्शन एक व्यावहारिक ग्रन्थ है। यह मानव मन को भलीभाँति समझकर गढ़ा गया है व इसे एक महत्त्वपूर्ण मार्ग बताया गया है। योगदर्शन का मुख्य उद्देश्य चित्तवृत्तियों का शोधन करना है। निर्बीज समाधि जो कि आध्यात्मिक जीवन का परमलक्ष्य है ईश्वरप्रणिधान से प्राप्त की जा सकती है(पा.यो.सू.1.23)। (Kriya Yoga in Hindi)
महर्षि पतंजलि ने ईश्वर को पुरुष विशेष की संज्ञा दी है। अन्य दर्शनों में जहाँ ईश्वर को विश्व का सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता, संहारकर्ता कहा गया है वहीं योगदर्शन में ईश्वर को विशेष पुरुष कहा गया है। ऐसा पुरुष जो दु:ख कर्मविपाक से अछूता है। महर्षि पतंजलि के अनुसार-
क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:। (पा.यो.सू. 1.24)
अर्थात् ईश्वर वह पुरुषविशेष है जिस पर दु:ख, कर्म, उसके लवलेश तथा फल आदि किसी का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। यहाँ ईश्वर को व्यक्तिवादी नहीं वरन् उसे उच्च आध्यात्मिक चेतना कहा गया है। वह ईश्वर परमपवित्र, कर्म व उसके प्रभाव से अछूता है उनका कोई भी प्रभाव ईश्वर पर नहीं पड़ता है। इसीलिये वह विशेष है।
समस्त जीवात्माओं का क्लेश अर्थात् अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेश और अभिनिवेष(पा.यो.सू. 2.3), कर्म(पा.यो.सू.4.7), विपाक अर्थात् कमोर्ं के फल(पा.यो.सू.2.13) तथा आशय अर्थात् कमोर्ं के संस्कार (पा.यो.सू. 2.12) से अनादि काल से सम्बन्ध है किन्तु ईश्वर का इनसे न तो कभी सम्बन्ध था, न है, न कभी भविष्य में होने की सम्भावना ही है। वह अविद्या, अज्ञान से रहित है इस कारण सम्बन्ध नहीं है। (Kriya Yoga in Hindi)
ईश्वर का वाचक ओंकार (ॐ) है। महर्षि कहते हैं ‘तस्य वाचक: प्रणव:’(पा.यो.सू. 1.27)। प्रणव का निरन्तर जप अर्थात् ईश्वर का निरन्तर चिन्तन करना ही ईश्वर प्रणिधान है। चित्त को सभी ओर से हटाकर एकमात्र ईश्वर पर लगाना चाहिये यह समाधि को प्रदान करने वाला है। इस प्रणव के जप से योग साधकों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। ईश्वरप्रणिधान से सभी अशुद्धियों का नाश हो जाता है। (पा.यो.सू. 1.29, 30, 31)।
इन अशुद्धियों में अन्तराय व सहविक्षेप कहे गये हैं- व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व तथा अनवस्थित्व ये चित्त के नौ अन्तराय या विक्षेप हैं। इन नौ प्रकार के विक्षेपों से चित्त में शरीर में अत्यवस्था उत्पन्न होती है। शरीर व मन का सामंजस्य बिगड़ जाता है एवं जब शरीर व मन व्यवस्थित नहीं रह पाते तव इस अवस्था में शारीरिक व मानसिक व्याधियाँ उत्पन्न होकर योगमार्ग में विघ्न-बाधाएँ उपस्थित हो जाती हैं।
व साधक साधना छोड़ बैठता है यही विघ्न है। सहविक्षेप दु:ख, दौर्मनस्य, अंगमेजयत्व, श्वास तथा प्रश्वास हैं। इन सहविक्षेपों तथा उपरोक्त नौ विक्षेपों के मिल जाने पर घोर विपत्ति साधक पर आ जाती है। वह ठीक प्रकार सोच-समझ नहीं पाता एवं साधना छोड़ बैठता है अथवा घोर आलस्य में समय व्यतीत करता रहता है। (Kriya Yoga in Hindi)
विक्षिप्त चित्त वालों की ये उपर्युक्त अवस्थाएँ निरन्तर अभ्यास से शान्त हो जाती हैं। एकतत्व पर अर्थात् ईश्वर पर निरन्तर(पा.यो.सू. 1.32 ) ध्यान लगाने से ये विक्षेप दूर हो जाते हैं। (Kriya Yoga in Hindi)
क्रिया योग के साधन – Means of Kriya Yoga
महर्शि पतंजलि ने योगसूत्र में क्रियायोग के निम्नाकित तीन साधन बताये है। महर्षि पतंजलि ने समाधि पाद में जो भी योग के साधन बताए हैं वे सभी मन पर निर्भर है। किन्तु जो अन्य विधियों से मन को नियन्त्रित नही कर सकते है। उनके लिए क्रियायोग का वर्णन किया गया है। इस क्रियायोग से क्लेश कमजोर होकर समाधि की स्थिति प्राप्त कराते है। इस समाधि की स्थिति में दु:खों का नाश हो जाता है। आनन्द की प्राप्ति होती है, साधन पाद में इन तीनों साधनों का वर्णन है, जो निम्न प्रकार है-
तप
तप एक प्रकार से आध्यात्मिक जीवन शैली को कहा जा सकता है। तप साधना काल में आध्यात्मिक जीवन शैली अपनातें हुए जों शारीरिक तथा मानसिक कष्टों को ईश्वर की इच्छा समझकर स्वीकार कर लेना प्रत्युत्तर में कोई प्रतिक्रिया न करना यह साधना तप है। तपस्वी ईश्वर के साक्ष्य अपना सम्पूर्ण जीवन जीता है। साधन काल में उसका कोई भी कर्म ऐसा नहीं होता जो अपनी आराध्य के समक्ष नहीं किया जा सकता। तप संयमित रूप से जीवन जीना है अहंकार, तृष्णा और वासना को पीछे छोड.कर उस प्रभु पर समर्पण ही तप है। (Kriya Yoga in Hindi)
साधक काल में शास्त्रोंक्त कर्मो में फल की इच्छा करते हुए करना, शास्त्रोंक्त कर्म जैसे- स्वधर्म पालन, व्रत, उपवास, नियम, संयम, कर्तव्य पालन आदि इन सभी कर्मो को निश्ठा व ईमानदारी से करना ही तप है। अपने आश्रय, वर्ण, योग्यता और परिस्थिति के अनुसार ही स्वधर्म का पालन करना चाहिए, उसके पालन में जो भी कष्ट प्राप्त हो चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक, उन सभी कष्टों को सहर्ष सहन करना ही ‘तप’ कहलाता है। (Kriya Yoga in Hindi)
महर्षि पतंजलि में वर्णन किया है-
‘तपो द्वन्द सहनम्’।
अर्थात् सभी प्रकार के द्वन्दो को सहन करना ही तप है। बिना कष्ट सहन कियें कोई भी साधना सिद्ध नही होती है। अत: योग साधना करने के लिए जड.ता तथा आलस्य न करते हुए सभी द्वन्दों, जैसे सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास को सहते हुए, अपनी साधना में डटे रहना ही तप कहलाता है।
योग भाश्य के अनुसार-
न तपस्विनों योग सिद्धति:। योगभाश्य 2/1
अर्थात् तप किये बिना योग सिद्धि कदापि सम्भव नही हो सकती है। अत: योगी को कठोर तपस्या करनी चाहिए। श्रीमद् भगवद्गीता में वर्णन है-
‘मात्रास्पर्षास्तु कौन्तेय शीतोष्ण सुखदु:खदा:।
आगमापायिनोडनित्यास्तास्तितिक्षस्व भारत:। गीता 2/14
अर्थात् उन द्वन्दों, शारीरिक कष्टों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए बल्कि उन्हे यह सोचकर सहन का लेना चाहिये कि ये सभी सदैव रहने वाले नही है। अत: द्वन्दों के वषीभूत न होकर साधना में तत्परता के साथ लगे रहना ही योग का सफल होना है, अतएव योगी को कठोर तपस्या करनी चाहिए। परन्तु तप कैसे करना चाहिए।
इसका वर्णन योग वाचस्पति टिका में मिलता है-
‘तावन्मात्रमेवतपष्चरणीये न यावता धातु वैशम्यमापद्यत’।
अर्थात् तप उतना ही करना चाहिए कि जिससे शरीर के धातुओं में विषमता उत्पन्न न हो। वात, पित्त, कफ, त्रिदोशों में विषमता उत्पन्न न हों। इस प्रकार किया जाने वाले तप अवश्य ही योग सिद्धि प्रदान करता। महर्षि पतंजलि ने तप के फल का वर्णन इस प्रकार किया है-
‘कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयान्तपस:।’ योगसूत्र 2/43
अर्थात् तप से अशुद्धियों का नाश होता है। और शरीर और इन्द्रियो की सिद्धि हो जाती है। उसकी समस्त इन्द्रियॉ वश में हो जाती है। और इनके वष में आने से ही सिद्धि की प्राप्ति होती है।
स्वाध्याय-
स्वाध्याय का यदि शाब्दिक अर्थ लिया जाय तो इसका अर्थ है स्व का अध्ययन। स्वयं का अध्ययन या स्वाध्याय का अर्थ श्रेष्ठ साहित्य का अध्ययन करना है। परन्तु मात्र अध्ययन करने से ही स्वाध्याय नहीं कहा जा सकता है। जब तक कि उस पडे. हुए, अध्ययन किये हुए चिन्तन मनन न किया जाय, अध्ययन किये हुए शास्त्रों पर चिन्तन, मनन कर चरित्र में उतार कर विवेक ज्ञान जाग्रत कर उस परमेश्वर के चरणो प्रीति कर भगवद् भक्ति जाग्रत हो यही स्वाध्याय है। (Kriya Yoga in Hindi)
पण्डित श्री रामशर्मा जी के अनुसार- श्रेष्ठ साहित्य की प्रकाश में आत्मानुसंधान की ओर गति स्वाध्याय है। स्वाध्याय ध्यान की स्थिति में अपने स्वरूप का ध्यान करना उस ईश्वर का ध्यान कर उसके मंत्रों का जप करना ही स्वाध्याय है। स्वाध्याय का तात्पर्य वेद, उपनिषद्, दर्शन आदि मोक्ष शास्त्रों का गुरू आचार्य या अन्य विद्वानों से अध्ययन करना। एक अन्य अर्थ के अनुसार स्वाध्याय का अर्थ स्वयं का अध्ययन करना है। परन्तु स्वाध्याय का अर्थ मात्र इतना होकर अत्यन्त व्यापक है। (Kriya Yoga in Hindi)
योग शास्त्र में वर्णन मिलता है प्रणव मंत्र का विधि पूर्वक जप करना स्वाध्याय है। तथा गुरू मुख से वैदिक मंत्रों का श्रवण करना, उपनिषद एवं पुराणों आदि मोक्ष शास्त्रों का स्वयं अध्ययन करना स्वाध्याय है।
वही योगभाश्य का व्यास जी ने भी स्वाध्याय का वर्णन करते हुए लिखा है-
‘स्वाध्यायोमोक्षशास्त्राणामध्ययनम् प्रणव जपो वा।’ व्यासभाश्य 2/32
अर्थात् मोक्ष प्राप्ति जो शास्त्र सहायक हो उन शास्त्रों का अध्ययन करना तथा उन्हें अपने जीवन में उतारना ही स्वाध्याय है।
पं0 श्री रामशर्मा आचार्य जी के अनुसार- ‘अच्छी पुस्तकें जीवन्त देव प्रतिमाएं है जिनकी आरधना से तत्काल प्रकाश व उल्लास मिलता है।’
अत: स्वाध्याय शास्त्रों का अध्ययन कर उसे अपने आचरण में, जीवन में अपनाना ही स्वाध्याय है। अत: केवल शास्त्रों के अध्ययन तक ही सीमित न रहकर शास्त्रों के सार को ग्रहण कर सदा-सर्वदा योग साधना में लगे रहना ही स्वाध्याय है। और योग साधना में मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है। स्वाध्याय के द्वारा स्वयं का मनन चिन्तन करने से अपने अन्दर के विकारों का पता लगता है।
स्वयं के अन्र्तमन में व्याप्त कलशित विचारों का अध्ययन कर उन्हें दूर करने का मार्गदर्शन मिलता है, आत्मज्ञान द्वारा विवेक ज्ञान द्वारा उन्हें दूर किया जा सकता है। जिससे मानव जीवन उत्कृष्ट बनता है। क्योंकि तप के द्वारा व्यक्ति कर्मो को उत्कृष्ट बना सकता है। और साधना की ओर अग्रसर हो सकता है। वही स्वाध्याय के द्वारा अपनी ईष्ट के दर्शन कर ज्ञानयोग का अधिकारी बनता है। विवेक ज्ञान की प्राप्ति का जीवन को दिव्य बना सकता है। (Kriya Yoga in Hindi)
महर्षि पतंजलि ने स्वाध्याय का फल बताते हुए कहा है-
‘स्वाध्यायादिश्टदेवता सम्प्रयोग:।’ योगसूत्र 2/44
अर्थात् स्वाध्याय के तथा प्रणव आदि मन्त्रों के जप करने तथा अनुष्ठान करने से अपने ईष्ट देवता के दर्शन होते है, तथा वे उन्हें आशीर्वाद देकर अनुग्रहीत करते है। वह अपने ईष्ट से आराध्य से एकरस हो जाते है। स्वाध्याय से प्रभु चरणों में प्रीति होती है। भगवद् भक्ति का जागरण होता है। जो स्वाध्यायशील होते है। उनके लिए प्रभु की शरण सहज हो जाती है।
ईश्वरप्राणिधान या ईश्वर शरणागति-
यह साधन एक मात्र ऐसा साधन है। जिसमें साधक स्वयं समर्पित हो जाता है। अपने आप को भुलाकर ईश्वर पर अपने शरीर, मन, बुद्धि, अहंकार को समर्पित कर देता है। और समस्त कर्म ईश्वर की मर्जी के अनुरूप होते है। साधक अपने को बॉसुरी की तरह खाली बना लेता है। और उसमें सारे स्वर उसी ईश्वर के होते है। जब साधक पूर्ण रूपेण खाली होकर स्वयं को उस ईश्वर को समर्पित कर देता है।
तब वह ईश्वर उसका हाथ उसी प्रकार थाम लेता है। जैसे एक माता द्वारा बच्चे को और पग-पग पर उसको गलत रास्तों से बचाते हुए उचित मार्गदर्शन करता है। साधक अपने समस्त कर्म ईश्वर की आज्ञा से तथा ईश्वर के कर्म समझ कर करता है। और फलेच्छा का त्याग कर कर्म करता है। ऐसा साधक की चित्त की वृत्तियॉ समाप्त होकर वह मोक्ष का अधिकारी बनता है। (Kriya Yoga in Hindi)
महर्षि पतंजलि द्वारा प्रतिपादित क्रियायोग का मुख्य आधार तप कहा जा सकता है, इसका भावनात्मक आधार ईश्वर प्राणिधान है। तथा वैचारिक आधार स्वाध्याय है। ईश्वर के प्रति समर्पण को श्रृद्धा और प्रज्ञा का स्त्रोत कहा जा सकता है। अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है। यदि स्वाध्याय या प्रज्ञा में निरन्तरता ना बनी रहे, वैचारिक दोश भाव बढने लगे तो तप में भी मन्दता आने लगती है।
अकर्मण्यता बढने लगती है। इसी तरह यदि श्रृद्धा या ईश्वरप्राणिधान विश्वास में कमी आने लगे तो तप को प्रेरणादायी ऊर्जा नहीं मिल पाती है। इस प्रकार कहा जा सकता है। जिसने निरन्तर तप किया है। उसकी ईश्वर प्राणिधान या श्रृद्धा स्वाध्याय या प्रज्ञा में कभी भी कमी नहीं आती है। क्रियायोग का उत्कर्ष ईश्वरप्राणिधान है। प्रभु शरणागति या ईश्वर के प्रति समर्पण एक ऐसी जाग्रति है। ऐसा बोध है। जब यह ज्ञान हो जाता है। कि अंधकार का विलय हो चुका है। अब तो बस उस परमात्मा की ही प्रकाश सर्वत्र दिखायी दे रहा है। और उस स्थिति को प्राप्त हो जाना कि अब हरि हैं मै नाहि। (Kriya Yoga in Hindi)
ईश्वर की भक्ति विशेष या उपासना को ही ईश्वर प्रणिधान कहते है।
योगभाश्य में महर्षि व्यास ने लिखा है-
‘ईश्वर प्राणिधान तस्मिन् परमगुरौ सर्वकर्मार्पणम्।’ योगभाश्य 2/32
अर्थात् सम्पूर्ण कर्मफलों के साथ अपने कर्र्मो को गुरुओं का भी परम गुरु अर्थात् ईश्वर को सौंप देना ही ईश्वरप्राणिधान है।
अथर्ववेद में 7/80/3 में इस प्रकार वर्णन मिलता है-
‘यत्कासास्ते जुहुमस्तन्नोअस्तु।’
अर्थात् हे ईश्वर हम जिन शुभ संकल्पों को लेकर आपकी उपासना में तत्पर हैं आप हमारे एन संकल्पों को पूर्ण करें और हमारे जो भी अच्छें या बुरे कर्म हैं या कर्मफल है वे सभी आप को ही समर्पित कर दिये है, इसी भावना का नाम ही ईश्वर प्राणिधान है। (Kriya Yoga in Hindi)
मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य मोक्ष, कैवल्य की प्राप्ति और यही मोक्ष कैवल्य चारों पुरुषार्थ में अन्तिम पुरुषार्थ है। और इसकी सिद्धि के लिए ईश्वर प्राणिधान आवश्यक है, ईश्वर की उपासना या ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण से ही योग में सिद्धि मिलती है। उस ईश्वर को परिभाषित करते हुए महर्षि पतंजलि ने योगशास्त्र में वर्णन किया है-
‘क्लेशकर्म विपाकाशयैरपरामृश्ट:पुरुष: विशेष: ईश्वर:।
अर्थात् जो क्लेश, कर्म, कर्मो के फलों, और कर्मो के संस्कारों के सम्बन्ध से रहित है तथा समस्त पुरुषों में श्रेष्ठ है, उत्तम है वह ईश्वर है। और वही ईश्वर हमारा परम गुरू भी है। जैसा कि योगसूत्र में 1/26 में कहा गया है-
‘पूर्वेशामपिगुरु: कालेनानवच्छेदात्।’
अर्थात् वह परमेश्वर सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी का भी गुरु है, वह अनादि है, अनन्त है। इसी तरह सृष्टि में आदि से अब तक न जाने कितने गुरु हुए जो कि काल से बाधित है, परन्तु काल से भी ईश्वर सभी गुरुओं का भी गुरु है, उस परम ईश्वर का अनुग्रह प्राप्त करना ही ईश्वर प्रणिधान है।
और ईश्वरप्रणिधान के द्वारा समाधि की सिद्धि होती है। जिसका वर्णन महर्षि पतंजलि ने साधनपाद के 45वें सूत्र में कहा है-
‘समाधिसिद्धिरीष्वरप्राणिधानात्।’ 2/45।
अर्थात् ईश्वर प्रणिधान से समाधि की सिद्धि हो जाती है ईश्वर प्रणिधान से योग साधना के मार्ग में आने वाले सभी विघ्न-बाधाएं दूर हो जाते है। उस र्इंंंंष्वर की विशेष अनुकम्पा प्राप्त होती है। और साधक को योग सिद्धि प्राप्त होती है। ईश्वर प्रणिधान जो कि ईश्वर पर पूर्ण रुपेण समर्पण है। भक्तियोग है। भक्तियोग, के द्वारा साधक अपने उपास्थ ब्रह्म के भाव में पूर्ण रुपेेण भावित होकर तद्रुपता का अनुभत करता है।
जिससे कि व्यक्तित्व का रुपान्तरण होता है। साधक का जीवन उत्कृष्ट होकर मुक्ति देने वाला होता है। इस प्रकार क्रियायोग के तीनों साधन कर्म, भक्ति, ज्ञान का सुन्दर समन्वय है। जो कि जीवन को उत्कृष्ट बनाने के लिए आवश्यक है। जिस प्रकार मुुखमण्डल की सुन्दरता के लिए सभी अंगों का होना आवश्यक है। उसी प्रकार जीवन में सौन्दर्य लाने के लिए कर्म, भक्ति, तथा ज्ञानयोग का सुन्दर समन्वय नितान्त आवश्यक है। जिससे कि जीवन दिव्यता व उत्कृष्टता को प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त कर सकें। (Kriya Yoga in Hindi)
क्रिया योग का उद्देश्य एवं महत्व – Purpose and importance of Kriya Yoga
महर्षि पतंजलि ने साधनपाद के दूसरे सूत्र में क्रियायोग का फल या क्रियायोग का उद्देश्य बताया है-
‘समाधिभावनार्थ: क्लेशतनुकरणार्थष्च। योगसूत्र 2/2
अर्थात् यह क्रियायोग समाधि की सिद्धि देने वाला तथा पंचक्लेशों को क्षीण करने वाला है।
महर्षि मानते है कि मनुष्य के पूर्व जन्म के संस्कार हर जन्म में अपना प्रभाव दिखाते है और ये क्लेश मनुष्य हर जन्म में भोगना पडता है। पूर्व जन्म के संस्कारों से जुडे रहने के कारण के अपना प्रभाव दिखाते है। इन क्लेशों का पूर्णतया क्षय बिना आत्मज्ञान के नहीं होता हैं। परन्तु क्रिया योग की साधना से इन्हें कम या क्षीण किया जा सकता है और मोक्ष प्राप्ति की साधना के मार्ग में बढा जा सकता है। (Kriya Yoga in Hindi)
क्रियायोग की साधना से समाधि की योग्यता आ जाती है। क्रियायोग से यह क्लेश क्षीण होने लगते है क्लेशों के क्षीर्ण होने से ही मन स्थिर हो पाता है। पंचक्लेश यदि तीव्र अवस्था में है तब उस स्थिति में समाधि की भावना नहीं हो पाती है। (Kriya Yoga in Hindi)
तप स्वाध्याय व ईश्वर प्राणिधान या कर्म भक्ति ज्ञान के द्वारा क्लेषों को क्षीण कर समाधि का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है। क्रियायोग के द्वारा जीवन को उत्कृष्ट बनाकर समाधि की प्राप्ती की जा सकती है। क्रियायोग के अन्तर्गत तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्राणिधान की साधना आती है। जिसमें कि कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग का सुन्दर समन्वय समाहित है। शास्त्रों में तप के महत्व का वर्णन इस प्रकार किया है-
‘यद् दुश्करं दुराराध्य दुर्जयं दुरतिक्रमम्।
तत्सर्व तपस्या साध्यातपो हि दुरतिक्रमम्।।’
संसार में जो भी दुसाध्य व अति कठिन कार्य है, उन कठिन से कठिन कार्य को करने में कोई भी समर्थ नहीं होता है। उन कार्यों को तप के द्वारा सिद्ध किया जा सकता है। शास्त्रों में तप को मोक्ष प्राप्ति का साधन कहा है। तप के द्वारा मन वचन तथा अपनी इन्द्रियो को तपाने से जन्म जमान्तरों के पाप भस्मीभूत हो जाते है। कूमपूराण में कहा गया है-
योगाग्निर्दहति क्षिप्रमषेशं पाप पन्जरम।
प्रसन्नं जायतेज्ञानं ज्ञानान्निर्वाणमृच्छति।।’
अर्थात् तपस्या से जो योग की अग्नि उत्पन्न होती है। वह शीघ्र ही मनुष्य के सभी पाप समूहों को दग्ध कर देती है। और पापों के क्षय हो जाने पर ऐसे ज्ञान का उदय होता है। जिससे कि मुक्ति की प्राप्ति हो जाती है। और योगी पुरुष का बन्धन उसी प्रकार टूट जाता है, जिस प्रकार बाज पक्षी बन्धन रस्सी को काट कर आकाश में उड. जाता हे। वह संसार रुपी बन्धन से मुक्त हो जाता है। (Kriya Yoga in Hindi)
ईश्वर प्रणिधान र्इंष्वर के प्रति समर्पण ही हमारे समस्त दुखों, कल्मश कशायों का अन्त है। जिसमें की अपना अस्तित्व समाप्त कर उस परमात्मा के अस्तित्व का भान होता। जिसमें कि अपना अस्तित्व मिटने पर समाधि का आनन्द होने लगता है। महर्षि पतंजलि ईश्वर प्रणिधान का फल बताते हुए कहते है-
‘समाधिसिद्धिरीष्वरप्रणिधानात्’। योगसूत्र 2/45
अर्थात् ईश्वर प्रणिधान से समाधि की सिद्धि होती है। ईश्वर के आशीर्वाद से उसकी समस्त चित्त की वृत्तियॉ समाप्त हो जाती है। जिससे कि वह मोक्ष को प्राप्त होता है। (Kriya Yoga in Hindi)
अत: हम कह सकते है कि वर्तमान जीवन में तप स्वाध्याय व ईश्वरप्रणिधान का अत्यन्त महत्व है। क्योंकि तप कर्म के लिए प्रेरित करते है जो कि कर्मयोग है। कर्मयोगी ही कमोर्ं को कुशलता पूर्वक कर सकता है। तप, कठिन परिश्रम व्यक्ति को कर्मयोगी बनाती है। अत: कमोर्ं में कुशलता लाने के लिए तप नितान्त आवश्यक है। (Kriya Yoga in Hindi)
वही स्वाध्याय साधक के ज्ञानयोगी बनाता है। स्वाध्याय से विवेकज्ञान की प्राप्ति होती है। क्या सही है, क्या गलत है का ज्ञान साधक को होता हे। जो कि प्रगति या उन्नति के मार्ग में अति आवश्यक है। स्वाध्याय के द्वारा श्रेष्ठ साहित्यों का अध्ययन करते हुए आत्मानुसंधान की ओर साधक बढता है। तथा स्वयं ही वह प्रभु की शरण का आश्रय लेते है। (Kriya Yoga in Hindi)
टिप्पणी (Note)
इस पोस्टमे हमने विज्ञान भैरव तंत्र (Vigyan Bhairav Tantra), पतंजलि योग सूत्र, रामायण (Ramcharitmanas), श्रीमद्भगवद्गीता (Shrimad Bhagvat Geeta), महाभारत (Mahabhart), वेद (Vedas) आदी परसे बनाइ है । (Kriya Yoga in Hindi)
आपसे निवेदन है की आप योग करेनेसे पहेले उनके बारेमे जाण लेना बहुत आवशक है । आप भीरभी कोय गुरु या शास्त्रो को साथमे रखके योग करे हम नही चाहते आपका कुच बुरा हो । योगमे सावधानी नही बरतने पर आपको भारी नुकशान हो चकता है । (Kriya Yoga in Hindi)
इस पोस्ट केवल जानकरी के लिये है । योगके दरम्यान कोयभी नुकशान होगा तो हम जवबदार नही है । हमने तो मात्र आपको सही ज्ञान मिले ओर आप योग के बारेमे जान चके इस उदेशसे हम आपको जानकारी दे रहे है । (Kriya Yoga in Hindi)
इसेभी देखे – ॥ भारतीय सेना (Indian Force) ॥ पुरस्कार (Awards) ॥ इतिहास (History) ॥ युद्ध (War) ॥ भारत के स्वतंत्रता सेनानी (FREEDOM FIGHTERS OF INDIA) ॥ (Kriya Yoga in Hindi)
FAQ (Kriya Yoga in Hindi)
What is Kriya Yoga ? – क्रिया योग क्या है ?
क्रिया योग (Kriya Yoga in Hindi) एक प्राचीन ध्यान की तकनीक है, जिससे हम प्राण शक्ति और अपने श्वास को नियंत्रण में ला सकते हैं। यह तकनीक एक व्यापक आध्यात्मिक जीवन का हिस्सा है, जिसमे शामिल हैं अन्य ध्यान कीं तकनीक अवं सात्विक जीवन शैली। क्रिया योग की तकनीक शतकों तक रहस्य में छिपी हुई थी। यह तकनीक 1861 में पुनरुज्जीवित हुई जब महान संत महावतार बाबाजी ने यह तकनीक अपने शिष्य लाहिड़ी महाशय को सिखाई। (Kriya Yoga in Hindi)
How does Kriya Yoga work ? – क्रिया योग कैसे काम करता है ?
परमहंस योगानंद जी के अनुसार- योग के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए (ईश्वर के साथ एक होना), क्रिया योग आज के ज़माने में मनुष्य को उपलब्ध सबसे प्रभावशाली तकनीक है। क्रिया योग इतना प्रभावशाली इसलिए है क्योंकि वह विकास के स्रोत के साथ प्रत्यक्ष रूप से काम करता है- हमारी मेरुदंड के भीतर आध्यात्मिक शक्ति।
सभी योग कीं तकनीकें इसी शक्ति के साथ काम करतीं है, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से। योगासन, उदाहरण स्वरूप, मेरुदंड के अंदर मार्ग खोलने में मदद कर सकते हैं, एवं मेरुदंड के भीतर की शक्ति को संतुलित कर सकते हैं। योग श्वास-नियंत्रण तकनीक, मतलब प्राणायाम, इस शक्ति को जागरूक करने में मदद कर सकतें हैं। (Kriya Yoga in Hindi)
Origin of Kriya Yoga – History of Kriya Yoga – क्रिया योग की उत्पत्ति / क्रिया योग का इतिहास
इस परम्परा का प्रारंभ शिव योग के पारंगत सिद्ध योगियों ने किया | सिद्ध अगस्त्य और सिद्ध बोगनाथ की शिक्षाओं को संश्लेषित कर क्रिया बाबाजी नागराज ने क्रिया योग के वर्तमान रूप का गठन किया | हिमालय पर्वत पर स्थित बद्रीनाथ में सन् 1954 और 1955 में बाबाजी ने महान योगी एस. ए. ए. रमय्या को इस तकनीक की दीक्षा दी | (Kriya Yoga in Hindi)
Usefulness of Kriya Yoga – क्रिया योग की उपयोगिता
बाबाजी का क्रिया योग (Kriya Yoga in Hindi) दीक्षा शिविर में क्रमशः किया जाता है | व्यक्ति के सर्वांगीन उन्नति के लिये क्रिया योग के विभिन्न तकनीकों की शिक्षा क्रमबद्ध तरीके से दी जाती है | कई प्रकार के इन तकनीकों के निष्ठापूर्वक अभ्यास से साधक में एक अमूल परिवर्तन आता है | (Kriya Yoga in Hindi)
How to Practice Kriya Yoga ? – क्रिया योग का अभ्यास कैसे करे ?
क्रिया योग (Kriya Yoga in Hindi) पारंपरिक रूप से गुरु-शिष्य परंपरा के माध्यम से ही सीखा जाता है। साधक इसे आस योग की तरह नहीं ले सकता है। क्रिया योग (Kriya Yoga) में साधक की दीक्षा के बाद उन प्राचीन कठोर नियमों में निर्देशित किया जाता है जो गुरु से शिष्य संचारित योग कला को नियंत्रित करते हैं। योगानंद के जरिए इस क्रिया योग को विस्तार से वर्णित किया गया है। (Kriya Yoga in Hindi)
Benefits of Kriya Yoga ? – क्रिया योग के लाभ ?
क्रिया योग (Kriya Yoga in Hindi) के कई लाभ हैं, जिनमें से हम कुछ यहां दे रहे हैं। जो इस प्रकार हैं –
क्रिया योग के अभ्यास से साधक अपने आत्मा को साध लेता है। इसके साथ ही वह अपने ज्ञानेंद्रियों को साधने मे कामयाब होगा। (Kriya Yoga in Hindi)
इससे आपको मानसिक राहत मिलती है। अवसाद से आपको छुटकारा मिलता है। (Kriya Yoga in Hindi)
Types of Verb Yoga ? – क्रियायोग के प्रकार ?
क्रियायोग (Kriya Yoga in Hindi) के तीन प्रकार महर्षि पतंजलि ने बताये है।
1. तप, 2. स्वाध्याय, 3. ईष्वर प्रणिधान,
महर्षि पतंजलि के अनुसार ‘‘तप से अशुद्धियों का क्षय होता है तथा शरीर और इन्द्रियों की शुद्धि होती है।’’ (Kriya Yoga in Hindi)
Means of Kriya Yoga ? क्रिया योग के साधन ?
महर्शि पतंजलि ने योगसूत्र में क्रियायोग (Kriya Yoga in Hindi) के निम्नाकित तीन साधन बताये है। महर्षि पतंजलि ने समाधि पाद में जो भी योग के साधन बताए हैं वे सभी मन पर निर्भर है। किन्तु जो अन्य विधियों से मन को नियन्त्रित नही कर सकते है। उनके लिए क्रियायोग का वर्णन किया गया है। (Kriya Yoga in Hindi)
Purpose and importance of Kriya Yoga ? – क्रिया योग का उद्देश्य एवं महत्व ?
महर्षि मानते है कि मनुष्य के पूर्व जन्म के संस्कार हर जन्म में अपना प्रभाव दिखाते है और ये क्लेश मनुष्य हर जन्म में भोगना पडता है। पूर्व जन्म के संस्कारों से जुडे रहने के कारण के अपना प्रभाव दिखाते है। इन क्लेशों का पूर्णतया क्षय बिना आत्मज्ञान के नहीं होता हैं। (Kriya Yoga in Hindi)