विज्ञान भैरव तंत्र (Vigyan Bhairav Tantra)

Vigyan Bhairav Tantra
Vigyan Bhairav Tantra

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विज्ञान का अर्थ है चेतना, भैरव का अर्थ वह अवस्था है, जो चेतना से भी परे है और तंत्र का अर्थ विधि है, चेतना के पार जाने की विधि। हम मूर्छित हैं, अचेतन हैं, इसलिए सारी धर्म-देशना अचेतन के ऊपर उठने की; चेतन होने की देशना है। विज्ञान का मतलब है चेतना। और भैरव एक विशेष शब्द है, तांत्रिक शब्द, जो पारगामी के लिए कहा गया है। इसलिए शिव को भैरव कहते हैं और देवी को भैरवी- वे जो समस्त द्वैत के पार चले गए हैं। (Vigyan Bhairav Tantra)

शिव के उत्तर में केवल विधियाँ हैं। सबसे पुरानी, सबसे प्राचीन विधियाँ। लेकिन, तुम उन्हें अत्याधुनिक भी कह सकते हो, क्योंकि उनमें कुछ भी जोड़ा नहीं जा सकता। वे पूर्ण हैं- 112 विधियाँ। उनमें सभी संभावनाओं का समावेश है, मन को शुद्ध करने के, मन के अतिक्रमण के सभी उपाय उनमें समाए हुए हैं। और यह ग्रंथ, विज्ञान भैरव तंत्र, 5 हजार वर्ष पुराना है। उसमें कुछ भी नहीं जोड़ा जा सकता, कुछ जोड़ने की गुंजाइश ही नहीं है। यह सर्वांगीण है, संपूर्ण है, अंतिम है। यह सबसे प्राचीन है और साथ ही सबसे आधुनिक, सबसे नवीन। ध्यान की इन 112 विधियों से मन के रूपांतरण का पूरा विज्ञान निर्मित हुआ है। (Vigyan Bhairav Tantra)

ये विधियाँ किसी धर्म की नहीं हैं। वे ठीक वैसे ही हिंदू नहीं हैं, जैसे सापेक्षितवाद का सिद्धांत आइंस्टीन के द्वारा प्रतिपादित होने के कारण यहूदी नहीं हो जाता। रेडियो और टेलीविजन ईसाई नहीं हैं। कोई नहीं कहता कि बिजली ईसाई है, क्योंकि ईसाई मस्तिष्क ने उसका आविष्कार किया है। विज्ञान किसी वर्ण या धर्म का नहीं है। और तंत्र विज्ञान है। तंत्र धर्म नहीं, विज्ञान है। इसीलिए किसी विश्वास की जरूरत नहीं है। प्रयोग करने का महासाहस पर्याप्त है। (Vigyan Bhairav Tantra)

तंत्र बहुत माना-जाना नहीं है। यदि माना-जाना है भी तो बहुत गलत समझा गया है। उसके कारण हैं। जो विज्ञान जितना ही ऊँचा और शुद्ध होगा, उतना ही कम जनसाधारण उसे समझ सकेगा। हमने सापेक्षतावाद के सिद्धांत का नाम सुना है। कहा जाता था कि आइंस्टीन के जीतेजी केवल 12 व्यक्ति उसे समझते थे। यही कारण है कि जनसाधारण तंत्र को नहीं समझा। और यह सदा होता है कि जब तुम किसी चीज को नहीं समझते हो तो उसे गलत जरूर समझते हो, क्योंकि तुम्हें लगता है कि तुम समझते जरूर हो। (Vigyan Bhairav Tantra)

दूसरी बात कि जब तुम किसी चीज को नहीं समझते हो, तुम उसे गाली देने लगते हो। यह इसलिए कि यह तुम्हें अपमानजनक लगता है। तुम सोचते हो, मैं और नहीं समझूँ, यह असंभव है। तीसरी बात कि तंत्र द्वैत के पार जाता है। इसलिए उसका दृष्टिकोण अतिनैतिक है। कृपा कर इन शब्दों को समझें- नैतिक, अनैतिक, अति नैतिक। नैतिक क्या है, हम समझते हैं; अनैतिक क्या है, वह भी हम समझते हैं। लेकिन जब कोई चीज अतिनैतिक हो जाती है, नैतिक-अनैतिक दोनों के पार चली जाती है, तब उसे समझना कठिन हो जाता है। तंत्र अतिनैतिक है। (Vigyan Bhairav Tantra)

ऐसे समझो, औषधि अति नैतिक है। वह न नैतिक है, न अनैतिक। चोर को दवा दो तो उसे लाभ पहुँचाएगी। संत को दो तो उसे भी लाभ पहुँचाएगी। वह चोर और संत में भेद नहीं करेगी। दवा वैज्ञानिक है। तुम्हारा चोर या संत होना उसके लिए अप्रासंगिक है। (Vigyan Bhairav Tantra)

तंत्र कहता है, तुम आदमी को बदलाहट की प्रामाणिक विधि के बिना नहीं बदल सकते। मात्र उपदेश से कुछ नहीं बदलता। पूरी जमीन पर यही हो रहा है। इतने उपदेश, इतनी नैतिक शिक्षा, इतने पुरोहित, इतने प्रचारक! पृथ्वी उनसे पटी है। और फिर भी सब कुछ इतना अनैतिक है! इतना कुरूप है। ऐसा क्यों हो रहा है? तंत्र तुम्हारी तथाकथित नैतिकता की, तुम्हारे सामाजिक रस्म-रिवाज की चिंता नहीं करता। (Vigyan Bhairav Tantra)

इसका यह अर्थ नहीं है कि तंत्र तुम्हें अनैतिक होने को कहता है। नहीं, तंत्र जब तुम्हारी नैतिकता की ही इतनी कम फिक्र करता है, तो वह तुम्हें अनैतिक होने को नहीं कह सकता। तंत्र तो वैज्ञानिक विधि बताता है कि चित्त को कैसे बदला जाए। और एक बार चित्त दूसरा हुआ कि तुम्हारा चरित्र दूसरा हो जाएगा। एक बार तुम्हारे ढाँचे का आधार बदला कि पूरी इमारत दूसरी हो जाएगी। (Vigyan Bhairav Tantra)

ये 112 विधियाँ तुम्हारे लिए चमत्कारिक अनुभव बन सकती हैं। शिव ने ये विधियाँ प्रस्तावित की हैं। इसमें सभी संभव विधियाँ हैं। ये विधियाँ समस्त मानव जाति के लिए हैं। और वे उन सभी युगों के लिए हैं जो गुजर गए हैं। और जो आने वाले हैं। प्रत्येक ढंग के चित्त के लिए यहाँ गुंजाइश है। तंत्र में प्रत्येक किस्म के चित्त के लिए विधि है। कई विधियाँ हैं। जिनके उपयुक्त मनुष्य अभी उपलब्ध नहीं हैं, वे भविष्य के लिए हैं। ऐसी विधियाँ भी हैं, जिनके उपयुक्त लोग रहे नहीं, वे अतीत के लिए हैं। लेकिन, डर मत जाना। अनेक विधियाँ हैं, जो तुम्हारे लिए ही हैं।

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