कर्म योग (Karma Yoga in Hindi)

Karma Yoga
Karma Yoga

कर्मयोग का अर्थ (The meaning of Karma Yoga in hindi)

कर्म शब्द कृ धातु से बनता है। कृ धातु में ‘मन’ प्रत्यय लगने से कर्म शब्द की उत्पत्ति होती है। कर्म का अर्थ है क्रिया, व्यापार, भाग्य आदि। हम कह सकते हैं कि जिस कर्म में कर्ता की क्रिया का फल निहित होता है वही कर्म है। (Karma Yoga in Hindi)

कर्म करना मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। तथा कर्म के बिना मनुष्य का जीवित रहना असम्भव है। कर्म करने की इस प्रवृत्ति के संबन्ध में गीता में कहा गया है-

नहि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै:।। (गीता 3/5)

अर्थात् इस विषय में किसी भी प्रकार का संदेह नहीं किया जा सकता कि मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता, क्योंकि सभी मानव प्रकृतिजनित गुणों के कारण कर्म करने के लिए बाध्य होते हैं। मनुष्य को न चाहते हुए भी कुछ न कुछ कर्म करने होते हैं और ये कर्म ही बन्धन के कारण होते हैं। साधारण अवस्था में किये गये कर्मों में आसक्ति बनी रहती है, जिससे कई प्रकार के संस्कार उत्पन्न होते हैं। इन्हीं संस्कारों के कारण मनुष्य जीवन-मरण के चक्र में फंसा रहता है। जबकि ये कर्म यदि अनासक्त भाव से किये जाते हैं तो यह मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बन जाते हैं। (Karma Yoga in Hindi)

कर्म से व्यक्ति बंधन में बंधता है किन्तु गीता ने कार्य में कुशलता को योग कहा है। योग की परिभाषा देते हुए गीता में कहा है-

“योग: कर्मसु कौशलम’’ (गीता 2/50)

अर्थात् कर्मों में कुशलता ही योग है। कर्मयोग साधना में मनुष्य बिना कर्म बंधन में बंधे कर्म करता है तथा वह सांसारिक कर्मों को करते हुए भी मुक्ति प्राप्त कर लेता है। (Karma Yoga in Hindi)

कर्मयोग का गूढ़ रहस्य अर्जुन को बताते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन ! शास्त्रों के द्वारा नियत किये गये कर्मों को भी आसक्ति त्यागकर ही करना चाहिए क्योंकि फलासक्ति को त्यागकर किये गये कर्मों में मनुष्य नहीं बंधता। इसीलिए इस प्रकार वे कार्य मुक्तिदायक होते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि फल की इच्छा का त्याग करने पर कर्मों की प्रवृत्ति नहीं रहेगी, जबकि ऐसा नहीं है क्योंकि कर्म तो कर्तव्य की भावना से किये जाते हैं तथा यही कर्मयोग भी सीखाता है। (Karma Yoga in Hindi)

कर्मयोग की साधना में अभ्यासरत साधक धीरे-धीरे सभी कर्मों को भगवान को अर्पित करने लगता है, और साधक में भक्ति भाव उत्पन्न हो जाता है। इस अवस्था में साधक जो भी कर्म करता है वह परमात्मा को अर्पित करते हुए करता है। साधक परमात्मा में अपनी श्रद्धा बनाए रखते हुए उत्साह के साथ कर्म करता है। इस सम्बन्ध में गीता में कहा गया है-

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्। यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।। (गीता 9/27) 
अर्थात् हे अर्जुन! तू जो भी कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दानादि देता है, जो तप करता है, वह सब मुझको अर्पण कर।

ईश्वर के प्रति समर्पित कर्म व उसके फल सम्बन्ध को बताते हुए कहा गया है-

‘ब्रह्मण्याधाय कर्माणि संगं त्यक्त्वा करोति य:। लिप्यते न स पापेन पद्मपत्र मिवाम्भसा।। गीता 5/10

अर्थात् ब्रह्म को अर्पित करके अनासक्ति पूर्वक कर्म करने वाला उसके फल से वैसे ही अलग रहता है जैसे जल में कमल का पत्ता। (Karma Yoga in Hindi)

कर्मयोग की साधना में रत व्यक्ति में उच्च अवस्था की स्थिति आने पर स्वयं कर्ता की भावना समाप्त हो जाती है। इस अवस्था में साधक अनुभव करता है कि मेरे द्वारा जो भी कर्म किये जा रहे हैं, उन सबको करने वाले ईश्वर ही हैं। इस प्रकार से साधक कर्म करता हुआ भी बंधन से मुक्त रहता है। उसके द्वारा किये गये कर्म से किसी भी प्रकार के संस्कार उत्पन्न नहीं होते। इस प्रकार के कर्म मुक्ति को दिलाने वाले होते हैं। (Karma Yoga in Hindi)

कर्मयोग की साधना से साधक के लौकिक व पारमार्थिक दोनों पक्षों का उत्थान होता है। कर्मयोग के मार्ग से ही साधक गृहस्थ जीवनयापन करते हुए भी साधना कर सकता है तथा मुक्ति प्राप्त कर सकता है। (Karma Yoga in Hindi)

कर्म के भेद

कर्म मुख्य रूप से दो प्रकार के होते है –

  1. विहित कर्म 
  2. निशिद्ध कर्म 

1. विहित कर्म –

विहित कर्म अर्थात अच्छे कर्म, सुकृत कर्म। विहित कर्म के भी चार भेद है –

  1. नित्यकर्म
  2. नैमित्तिक कर्म
  3. काम्य कर्म
  4. प्रायश्चित कर्म
  1. नित्य कर्म – नित्य कर्म कर्म का अर्थ है, प्रतिदिन किये जाने वाला कर्म जैसे सन्ध्या पूजा, अर्चना, वन्दना इत्यादि। (Karma Yoga in Hindi)
  2. नैमित्तिक कर्म – जो कर्म किसी प्रयोजन के लिए किये जाते है उदाहरणार्थ, किसी त्योहार या पर्व आ जाने पर अनुष्ठान किसी की मृत्यु हो जाने पर श्राद्ध, तर्पण इत्यादि, जैसे पूत्र के जन्म होने पर जातकर्म, बड़े होने पर यज्ञोपवीत इत्यादि। (Karma Yoga in Hindi)
  3. काम्य कर्म – ऐसे कर्म जो किसी कामना या किसी प्रयोजन के लिए किये जाते है। जैसे नौकरी प्राप्ति के लिए, पूत्र की प्राप्ति के लिए, स्वर्ग की प्राप्ति के लिए यज्ञ, वर्षा को रोकने के लिए, अकाल पड़ने पर वर्षा करने के लिए हवन या अनुष्ठान, पुण्य्ाफल की प्राप्ति की इच्छा के लिए दान इत्यादि ये काम्य कर्म है। (Karma Yoga in Hindi)
  4. प्रायश्चित कर्म – प्रायश्चित कर्म जैसा कि नाम से स्पष्ट होता है कि अगर व्यरक्ति से कोई अनैतिक काम या पाप हो जाये तो उसके प्रायश्चित के लिए वो जो कर्म करता है उसके प्रायश्चित कर्म कहते है तथा जन्म -जन्मान्तरों के पापों का क्षय करने के लिए तपचर्यादि इत्यादि प्रायश्चित कर्म कहलाते है। (Karma Yoga in Hindi)

2. निषिद्ध कर्म –

निशिद्ध कर्म अर्थात जो कर्म शास्त्र के अनुकूल नहीं है, चोरी, हिंसा, झूठ, व्याभिचार इत्यादि कर्म निशिद्धकर्म है। पाठको हम जो भी कर्म करते है हमारा मन (आत्म, तत्व) उसे करने या न करने के लिए प्रेरित करता है कोई व्यक्ति उस आत्मा की आवाज के अनुसार कर्म करता है और कोई अनसुना करता है। अगर आत्मा की आवाज अर्थात परमेÜवर का भय न करते हुए हम जो कर्म करते है वह निषिद्ध कर्म है। (Karma Yoga in Hindi)

कर्मयोग के प्रकार (Types of karma yoga in hindi)

1. गीता के अनुसार कर्म – 

 भगवदगीता में तीन प्रकार के कर्म बताये है जो इस प्रकार है –

  1. कर्म – शास्त्र के अनुकूल, वेदों के अनुकूल किये गये कर्म। 
  2. अकर्म – अकर्म का अर्थ है कर्म का अभाव यानि तुष्णी अभाव।
  3. विकर्म – अर्थात जो निशिद्ध (पाप) कर्म है वह विकर्म है। 

2. योग सूत्र के अनुसार कर्म –  

महर्षि पतंजलि ने कैवल्यपाद के सातवें सूत्र में कर्म के भेद बताये है। कर्माशुक्लाकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम् योगसूत्र 4/7 अर्थात शुक्लकर्म, कृष्णकर्म, शुक्लकृष्णकर्म, तथा अशुक्लाकृष्णकर्म ये कर्म के चार भेद है –

  1. शुक्लकर्म – जो कर्म श्रेष्ठ है अर्थात वेदों में बताई गई विद्याओं के आधार पर जो कर्म किये जाते है। इस शुक्ल कर्म से स्वर्ग लोक की प्राप्ति होती है। (Karma Yoga in Hindi)
  2. कृष्ण कर्म – जो कर्म पाप कर्म है उन्हे कृष्ण कर्म कहा है। अर्थात शास्त्र विरूद्ध पापकर्मो को कृष्णकर्म कहा गया है। इन कृष्ण कर्मो से दुख तथा नरक की प्राप्ति होती है तथा इन कर्मो के फलों को जन्म जन्मान्तर तक भोगना पड़ता है। (Karma Yoga in Hindi)
  3. शुक्लकृष्णकर्म – ऐसे कर्म जो पाप व पुण्य के मिश्रण हो। कहा गया है कि शुक्ल कृष्णकर्म से पुन: मनुष्य को जन्म की प्राप्ति होती है। (Karma Yoga in Hindi)
  4. अशुक्लकृष्णकर्म – जो न तो पाप कर्म हो न पुण्य कर्म और न पाप-पुण्य मिश्रित कर्म हो इन सब से भिन्न ये कर्म निष्काम कर्म है क्योंकि ये कर्म किसी भी कामना के नहीं किये जाते है। इन कर्मो को करने से अन्त:करण की शुद्धि होती है। अन्त:करण शुद्ध पवित्र तथा दर्पण की भॉंति स्वच्छ छवि वाला निर्मल बन जाता है। शीघ्र ही ऐसे साधक को वास्तविक तत्व ज्ञान (आत्मा के ज्ञान) की प्राप्ति होती है या अन्त में निश्चित उसे कैवल्य की प्राप्ति होती है। (Karma Yoga in Hindi)

3. वेदान्त के अनुसार कर्म –

वेदान्त दर्शन में कर्म के तीन भेद बताये गये है-

  1. संचित कर्म – संचित कर्म का अर्थ है कि पूर्वजन्म में हमने जो अनेको शरीर धारण किये है उन शरीरों में हमने जो कर्म किये वो संचित कर्म कहलाते है। हमारे जन्म जन्मान्तरों के संस्कार चित्त में संचित पड़े रहते हैं, इन्हीं कर्म-संस्कारों के समूहों को संचित कर्म कहते है। (Karma Yoga in Hindi)
  2. प्रारब्ध कर्म – प्रारब्ध कर्म ऐसे कर्म है जो संचित कर्मों में अति प्रबल है ये कर्म इतने बलवान होते है कि कर्मों का फल भोगने के लिए अगले जन्म में जाते है। यह निश्चित है कि हमारे सुख या दुख की उत्पत्ति प्रारब्ध कर्म के अनुसार ही होती है। (Karma Yoga in Hindi)
  3. क्रियमान कर्म – इन्हें आगामी कर्म के नाम से भी जाना जाता है। आगामी अर्थात आगे किये जाने वाला कर्म, व्यक्ति ने जिन कर्मो का आरम्भ अभी नही किया है वही आगामी कर्म है जो भविष्य में फल प्रदान करते है। आगामी कर्म मनुष्य के अधीन है इनको चाहे तो हम बना सकते है चाहे तो बिगाड़ सकते है। (Karma Yoga in Hindi)

गीता के अनुसार कर्म क्या है ? – श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 – तृतीयोऽध्याय :- कर्मयोग

Karma Yoga Gita
Karma Yoga Gita

ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की आवश्यकता

अर्जुन उवाच

ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।

तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥ (१)

भावार्थ : अर्जुन ने कहा – हे जनार्दन! हे केशव! यदि आप निष्काम-कर्म मार्ग की अपेक्षा ज्ञान-मार्ग को श्रेष्ठ समझते है तो फिर मुझे भयंकर कर्म (युद्ध) में क्यों लगाना चाहते हैं? (१)

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।

तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्‌ ॥ (२)

भावार्थ : आप अनेक अर्थ वाले शब्दों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं, अत: इनमें से मेरे लिये जो एकमात्र श्रेयस्कर हो उसे कृपा करके निश्चय-पूर्वक मुझे बतायें, जिससे में उस श्रेय को प्राप्त कर सकूँ। (२)

श्रीभगवानुवाच

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।

ज्ञानयोगेन साङ्‍ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्‌ ॥ (३)

भावार्थ : श्रीभगवान ने कहा – हे निष्पाप अर्जुन! इस संसार में आत्म-साक्षात्कार की दो प्रकार की विधियाँ पहले भी मेरे द्वारा कही गयी हैं, ज्ञानीयों के लिये ज्ञान-मार्ग (सांख्य-योग) और योगियों के लिये निष्काम कर्म-मार्ग (भक्ति-योग) नियत है। (३)

न कर्मणामनारंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।

न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥ (४)

भावार्थ : मनुष्य न तो बिना कर्म किये कर्म-बन्धनों से मुक्त हो सकता है और न ही कर्मों के त्याग (सन्यास) मात्र से सफ़लता (सिद्धि) को प्राप्त हो सकता है। (४)

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्‌ ।

कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥ (५)

भावार्थ : कोई भी मनुष्य किसी भी समय में क्षण-मात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता है क्योंकि प्रत्येक मनुष्य प्रकृति से उत्पन्न गुणों द्वारा विवश होकर कर्म करता है। (५)

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्‌ ।

इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥ (६)

भावार्थ : जो मनुष्य कर्म-इन्द्रियों को वश में तो करता है किन्तु मन से इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, ऎसा मूर्ख जीव मिथ्याचारी कहलाता है। (६)

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।

कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥ (७)

भावार्थ : हे अर्जुन! जो मनुष्य मन के द्वारा इन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करता है और बिना किसी आसक्ति के कर्म-योग (निष्काम कर्म-योग) का आचरण करता है, वही सभी मनुष्यों में अति-उत्तम मनुष्य है। (७)

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।

शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः ॥ (८)

भावार्थ : हे अर्जुन! तू अपना नियत कर्तव्य-कर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है, कर्म न करने से तो तेरी यह जीवन-यात्रा भी सफ़ल नही हो सकती है। (८)

(यज्ञ की उत्पत्ति का निरूपण)

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः ।

तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ॥ (९)

भावार्थ : यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है इस यज्ञ की प्रक्रिया के अतिरिक्त जो भी किया जाता है उससे जन्म-मृत्यु रूपी बन्धन उत्पन्न होता है, अत: हे कुन्तीपुत्र! उस यज्ञ की पूर्ति के लिये संग-दोष से मुक्त रहकर भली-भाँति कर्म का आचरण कर। (९)

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाचप्रजापतिः ।

अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्‌ ॥ (१०)

भावार्थ : सृष्टि के प्रारम्भ में प्रजापति ब्रह्मा ने यज्ञ सहित देवताओं और मनुष्यों को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ द्वारा सुख-समृध्दि को प्राप्त करो और यह यज्ञ तुम लोगों की इष्ट (परमात्मा) संबन्धित कामना की पूर्ति करेगा। (१०)

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।

परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥ (११)

भावार्थ : इस यज्ञ द्वारा देवताओं की उन्नति करो और वे देवता तुम लोगों की उन्नति करेंगे, इस तरह एक-दूसरे की उन्नति करते हुए तुम लोग परम-कल्याण (परमात्मा) को प्राप्त हो जाओगे। (११)

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।

तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः ॥ (१२)

भावार्थ : यज्ञ द्वारा उन्नति को प्राप्त देवता तुम लोगों की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करेंगे, किन्तु जो मनुष्य देवताओं द्वारा दिए हुए सुख-भोगों को उनको दिये बिना ही स्वयं भोगता है, उसे निश्चित-रूप से चोर समझना चाहिये। (१२)

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ।

भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्‌ ॥ (१३)

भावार्थ : यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले भक्त सब पापों से मुक्त हो जाते हैं किन्तु अन्य लोग जो अपने इन्द्रिय-सुख के लिए ही भोजन पकाते हैं, वे तो पाप ही खाते हैं। (१३)

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।

यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥ (१४)

भावार्थ : सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वर्षा से होती है, वर्षा की उत्पत्ति यज्ञ सम्पन्न करने से होती है और यज्ञ की उत्पत्ति नियत-कर्म (वेद की आज्ञानुसार कर्म) के करने से होती है। (१४)

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्‌ ।

तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्‌ ॥ (१५)

भावार्थ : नियत कर्मों का विधान वेद में निहित है और वेद को शब्द-रूप से अविनाशी परमात्मा से साक्षात् उत्पन्न समझना चाहिये, इसलिये सर्वव्यापी परमात्मा ब्रह्म-रूप में यज्ञ में सदा स्थित रहता है। (१५)

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।

अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥ (१६)

भावार्थ : हे पृथापुत्र! जो मनुष्य जीवन में इस प्रकार वेदों द्वारा स्थापित यज्ञ-चक्र (नियत-कर्म) का अनुसरण नहीं करता हैं, वह निश्चय ही पापमय जीवन व्यतीत करता है। ऎसा मनुष्य इन्द्रियों की तुष्टि के लिये व्यर्थ ही जीता है। (१६)

(नियत-कर्म का निरुपण)

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।

आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥ (१७)

भावार्थ : परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही आनन्द प्राप्त कर लेता है तथा वह अपनी आत्मा मे ही पूर्ण-सन्तुष्ट रहता है, उसके लिए कोई नियत-कर्म (कर्तव्य) शेष नहीं रहता है। (१७)

संजय उवाच:

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।

न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥ (१८)

भावार्थ : उस महापुरुष के लिये इस संसार में न तो कर्तव्य-कर्म करने की आवश्यकता रह जाती है और न ही कर्म को न करने का कोई कारण ही रहता है तथा उसे समस्त प्राणियों में से किसी पर निर्भर रहने की आवश्यकता नही रहती है। (१८)

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।

असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः ॥ (१९)

भावार्थ : अत: कर्म-फ़ल में आसक्त हुए बिना मनुष्य को अपना कर्तव्य समझ कर कर्म करते रहना चाहिये क्योंकि अनासक्त भाव से निरन्तर कर्तव्य-कर्म करने से मनुष्य को एक दिन परमात्मा की प्रप्ति हो जाती है। (१९)

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।

लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥ (२०)

भावार्थ : राजा जनक जैसे अन्य मनुष्यों ने भी केवल कर्तव्य-कर्म करके ही परम-सिद्धि को प्राप्त की है, अत: संसार के हित का विचार करते हुए भी तेरे लिये कर्म करना ही उचित है। (२०)

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥ (२१)

भावार्थ : महापुरुष जो-जो आचरण करता है, सामान्य मनुष्य भी उसी का ही अनुसरण करते हैं, वह श्रेष्ठ-पुरुष जो कुछ आदर्श प्रस्तुत कर देता है, समस्त संसार भी उसी का अनुसरण करने लगता है। (२१)

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन ।

नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥ (२२)

भावार्थ : हे पृथापुत्र! तीनों लोकों में मेरे लिये कोई भी कर्तव्य शेष नही है न ही किसी वस्तु का अभाव है न ही किसी वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा है, फ़िर भी मैं कर्तव्य समझ कर कर्म करने में लगा रहता हूँ। (२२)

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥ (२३)

भावार्थ : हे पार्थ! यदि मैं नियत-कर्मों को सावधानी-पूर्वक न करूँ तो यह निश्चित है कि सभी मनुष्य मेरे ही मार्ग का ही अनुगमन करेंगे। (२३)

यदि उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्‌ ।

संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥ (२४)

भावार्थ : इसलिए यदि मैं कर्तव्य समझ कर कर्म न करूँ तो ये सभी लोक भ्रष्ट हो जायेंगे तब मैं अवांछित-सृष्टि की उत्पत्ति का कारण हो जाऊँगा और इस प्रकार समस्त प्राणीयों को नष्ट करने वाला बन जाऊँगा। (२४)

(ज्ञानी और अज्ञानी के कर्म)

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।

कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्‌ ॥ (२५)

भावार्थ : हे भरतवंशी! जिस प्रकार अज्ञानी मनुष्य फ़ल की इच्छा से कार्य (सकाम-कर्म) करते हैं, उसी प्रकार विद्वान मनुष्य को फ़ल की इच्छा के बिना संसार के कल्याण के लिये कार्य करना चाहिये। (२५)

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङि्गनाम्‌ ।

जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्‌ ॥ (२६)

भावार्थ : विद्वान महापुरूष को चाहिए कि वह फ़ल की इच्छा वाले (सकाम-कर्मी) अज्ञानी मनुष्यों को कर्म करने से रोके नही जिससे उनकी बुद्धि भ्रमित न हो, बल्कि स्वयं कर्तव्य-कर्म को भली-प्रकार से करता हुआ उनसे भी भली-भाँति कराते रहना चाहिये। (२६)

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।

अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥ (२७)

भावार्थ : जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी कर्म प्रकृति के गुणों के द्वारा सम्पन्न किए जाते हैं, अहंकार के प्रभाव से मोह-ग्रस्त होकर अज्ञानी मनुष्य स्वयं को कर्ता मानने लगता है। (२७)

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।

गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥ (२८)

भावार्थ : परन्तु हे महाबाहु! परमतत्व को जानने वाला महापुरूष इन्द्रियों को और इन्द्रियों की क्रियाशीलता को प्रकृति के गुणों के द्वारा करता हुआ मानकर कभी उनमें आसक्त नहीं होता है। (२८)

प्रकृतेर्गुणसम्मूढ़ाः सज्जन्ते गुणकर्मसु ।

तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्‌ ॥ (२९)

भावार्थ : माया के प्रभाव से मोह-ग्रस्त हुए मनुष्य सांसारिक कर्मों के प्रति आसक्त होकर कर्म में लग जाते हैं, अत: पूर्ण ज्ञानी मनुष्य को चाहिये कि वह उन मन्द-बुद्धि (सकाम-कर्मी) वालों को विचलित न करे। (२९)

मयि सर्वाणि कर्माणि सन्नयस्याध्यात्मचेतसा ।

निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥ (३०)

भावार्थ : अत: हे अर्जुन! अपने सभी प्रकार के कर्तव्य-कर्मों को मुझमें समर्पित करके पूर्ण आत्म-ज्ञान से युक्त होकर, आशा, ममता, और सन्ताप का पूर्ण रूप से त्याग करके युद्ध कर। (३०)

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः ।

श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽति कर्मभिः ॥ (३१)

भावार्थ : जो मनुष्य मेरे इन आदेशों का ईर्ष्या-रहित होकर, श्रद्धा-पूर्वक अपना कर्तव्य समझ कर नियमित रूप से पालन करते हैं, वे सभी कर्मफ़लों के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं। (३१)

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्‌ ।

सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥ (३२)

भावार्थ : परन्तु जो मनुष्य ईर्ष्यावश इन आदेशों का नियमित रूप से पालन नही करते हैं, उन्हे सभी प्रकार के ज्ञान में पूर्ण रूप से भ्रमित और सब ओर से नष्ट-भ्रष्ट हुआ ही समझना चाहिये। (३२)

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।

प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥ (३३)

भावार्थ : सभी मनुष्य प्रकृति के गुणों के अधीन होकर ही कार्य करते हैं, यधपि तत्वदर्शी ज्ञानी भी प्रकृति के गुणों के अनुसार ही कार्य करता दिखाई देता है, तो फिर इसमें कोई किसी का निराकरण क्या कर सकता है? (३३)

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।

तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥ (३४)

भावार्थ : सभी इन्द्रियाँ और इन्द्रियों के विषयों के प्रति आसक्ति (राग) और विरक्ति (द्वेष) नियमों के अधीन स्थित होती है, मनुष्य को इनके आधीन नहीं होना चाहिए, क्योंकि दोनो ही आत्म-साक्षात्कार के पथ में अवरोध उत्पन्न करने वाले हैं। (३४)

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌ ।

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥ (३५)

भावार्थ : दूसरों के कर्तव्य (धर्म) को भली-भाँति अनुसरण (नकल) करने की अपेक्षा अपना कर्तव्य-पालन (स्वधर्म) को दोष-पूर्ण ढंग से करना भी अधिक कल्याणकारी होता है। दूसरे के कर्तव्य का अनुसरण करने से भय उत्पन्न होता है, अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मरना भी श्रेयस्कर होता है। (३५)

(कामना रूपी शत्रु का शमन)

अर्जुन उवाचः

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः ।

अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥ (३६)

भावार्थ : अर्जुन ने कहा – हे वृष्णिवंशी! मनुष्य न चाहते हुए भी किस की प्रेरणा से पाप-कर्म करता है, यधपि ऎसा लगता है कि उसे बल-पूर्वक पाप-कर्म के लिये प्रेरित किया जा रहा है। (३६)

श्रीभगवानुवाच

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।

महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्‌ ॥ (३७)

भावार्थ : श्री भगवान ने कहा – इसका कारण रजोगुण से उत्पन्न होने वाले काम (विषय-वासना) और क्रोध बडे़ पापी है, तू इन्हे ही इस संसार में अग्नि के समान कभी न तृप्त होने वाले महान-शत्रु समझ। (३७)

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।

यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्‌ ॥ (३८)

भावार्थ : जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और धूल से दर्पण ढक जाता है तथा जिस प्रकार गर्भाशय से गर्भ ढका रहता है, उसी प्रकार कामनाओं से ज्ञान ढका रहता है। (३८)

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।

कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥ (३९)

भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र!! इस प्रकार शुद्ध चेतन स्वरूप जीवात्मा का ज्ञान कामना रूपी नित्य शत्रु द्वारा ढका रहता है जो कभी भी तुष्ट न होने वाली अग्नि की तरह जलता रहता है। (३९)

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।

एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्‌ ॥ (४०)

भावार्थ : इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि कामनाओं के निवास-स्थान होते हैं, इनके द्वारा कामनायें ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोह-ग्रस्त कर देती हैं। (४०)

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ।

पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्‌ ॥ (४१)

भावार्थ : अत: हे भरतवंशियों मे श्रेष्ठ! तू प्रारम्भ में ही इन्द्रियों को वश में करके और आत्म-ज्ञान और आत्म-साक्षात्कार में बाधा उत्पन्न करने वाली इन महान-पापी कामनाओं का ही बल-पूर्वक समाप्त कर। (४१)

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।

मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥ (४२)

भावार्थ : हे अर्जुन! इस जड़ पदार्थ शरीर की अपेक्षा इन्द्रियाँ श्रेष्ठ है, इन्द्रियों की अपेक्षा मन श्रेष्ठ है, मन की अपेक्षा बुद्धि श्रेष्ठ है और जो बुद्धि से भी श्रेष्ठ है तू वही सर्वश्रेष्ठ शुद्ध स्वरूप आत्मा है। (४२)

एवं बुद्धेः परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।

जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्‌ ॥ (४३)

भावार्थ : इस प्रकार हे महाबाहु अर्जुन! स्वयं को मन और बुद्धि से श्रेष्ठ आत्मा-रूप समझकर, बुद्धि के द्वारा मन को स्थिर करके तू कामनाओं रूपी दुर्जय शत्रुओं को मार। (४३)

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः॥

इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में कर्म-योग नाम का तीसरा अध्याय संपूर्ण हुआ॥ (Karma Yoga in Hindi)

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥

टिप्पणी (Note)

इस पोस्टमे हमने विज्ञान भैरव तंत्र (Vigyan Bhairav Tantra), पतंजलि योग सूत्र, रामायण (Ramcharitmanas),  श्रीमद्‍भगवद्‍गीता (Shrimad Bhagvat Geeta)महाभारत (Mahabhart)वेद (Vedas)  आदी परसे बनाइ है । (Karma Yoga in Hindi)

आपसे निवेदन है की आप योग करेनेसे पहेले उनके बारेमे जाण लेना बहुत आवशक है । आप भीरभी कोय गुरु या शास्त्रो को साथमे रखके योग करे हम नही चाहते आपका कुच बुरा हो । योगमे सावधानी नही बरतने पर आपको भारी नुकशान हो चकता है । (Karma Yoga in Hindi)

इस पोस्ट केवल जानकरी के लिये है । योगके दरम्यान कोयभी नुकशान होगा तो हम जवबदार नही है । हमने तो मात्र आपको सही ज्ञान मिले ओर आप योग के बारेमे जान चके इस उदेशसे हम आपको जानकारी दे रहे है । (Karma Yoga in Hindi)

इसेभी देखे – ॥ भारतीय सेना (Indian Force) ॥ पुरस्कार (Awards) ॥ इतिहास (History) ॥ युद्ध (War) ॥ भारत के स्वतंत्रता सेनानी (FREEDOM FIGHTERS OF INDIA) ॥

FAQ (Karma Yoga in Hindi)

कर्मयोग का अर्थ

कर्म शब्द कृ धातु से बनता है। कृ धातु में ‘मन’ प्रत्यय लगने से कर्म शब्द की उत्पत्ति होती है। कर्म का अर्थ है क्रिया, व्यापार, भाग्य आदि। हम कह सकते हैं कि जिस कर्म में कर्ता की क्रिया का फल निहित होता है वही कर्म है।

कर्म योग के कितने प्रकार हैं ?

1. गीता के अनुसार कर्म – कर्म, अकर्म, विकर्म,
2. योग सूत्र के अनुसार कर्म – शुक्लकर्म, कृष्ण कर्म, शुक्लकृष्णकर्म, अशुक्लकृष्णकर्म
3. वेदान्त के अनुसार कर्म – संचित कर्म, प्रारब्ध कर्म, क्रियमान कर्म,

कर्म के भेद

कर्म मुख्य रूप से दो प्रकार के होते है –
विहित कर्म 
निशिद्ध कर्म 

गीता के अनुसार कर्म क्या है ?

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 – तृतीयोऽध्याय :- कर्मयोग

कर्म कैसे करना चाहिए ?

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 – तृतीयोऽध्याय :- कर्मयोग करना चाहिअए

अच्छे कर्म क्या क्या है ?

अच्छे कर्म का मतलब अच्छा कार्य नहीं होता, बल्कि इसका मतलब उन कार्यों से है, जो एक अच्छे संकल्प के साथ किए जाते हैं। – श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 – तृतीयोऽध्याय :- कर्मयोग

महर्षि पतंजलि के अनुसार कर्म क्या है ?

महर्षि पतंजलि ने कैवल्यपाद के सातवें सूत्र में कर्म के भेद बताये है। कर्माशुक्लाकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम् योगसूत्र 4/7 अर्थात शुक्लकर्म, कृष्णकर्म, शुक्लकृष्णकर्म, तथा अशुक्लाकृष्णकर्म ये कर्म के चार भेद है।