अष्टांग योग (Ashtanga Yoga in Hindi)

Ashtanga Yoga
Ashtanga Yoga

अष्टांग योग क्या है? (what is ashtanga yoga)

हमारे ऋषि मुनियों ने योग के द्वारा शरीर मन और प्राण की शुद्धि तथा परमात्मा की प्राप्ति के लिए आठ प्रकार के साधन बताएँ हैं, जिसे अष्टांग योग (Ashtanga Yoga) कहते हैं.. (Ashtanga Yoga)

ये निम्न हैं-

  • यम
  • नियम
  • आसन
  • प्राणायाम
  • प्रात्याहार
  • धारणा
  • ध्यान
  • समाधि

इन आठ में प्रारम्भिक दो अंगों का महत्त्व सबसे अधिक है । इसीलिए उन्हें सबसे प्रथम स्थान दिया गया है ।

यम और नियम का पालन करने का अर्थ मनुष्यत्व का सवर्तोन्मुखी विकास है ।

योग का आरम्भ मनुष्यत्व की पूर्णता के साथ आरम्भ होता है । बिना इसके साधना का कुछ प्रयोजन नहीं ।

योग में प्रवेश करने वाले साधक के लिए यह आवश्यक है कि आत्म-कल्याण की साधना पर कदम उठाने के साथ-साथ यम-नियमों की जानकारी प्राप्त करें । उनको समझें, विचारें, मनन करें और उनको अमल में, आचरण में लाने का प्रयत्न करें । (Ashtanga Yoga)

यम-नियम दोनों की सिद्धियाँ असाधारण हैं । महर्षि पातंजलि ने अपने योग दर्शन में बताया है कि इन दसों की साधना से महत्त्वपूर्ण ऋद्धि-सिद्धियाँ प्राप्त होती है ।

हमारा निज का अनुभव है कि यम-नियमों की साधना से आत्मा का सच्चा विकास होता है और उसके कारण जीवन सब प्रकार की सुख-शन्ति से परिपूर्ण हो जाता है ।

यम-नियम का परिपालन एक ऐसे राजमार्ग पर चल पड़ने के समान है जो सीधे गन्तव्य स्थल पर ही पहुँचाकर छोड़ता है ।

‘राजमार्ग’ का अर्थ है आम-सड़क-वह रास्ता जिस पर होकर हर कोई चल सके, जिस पर चलने में सब प्रकार की सरलता, सुविधा हो, कोई विशेष कठिनाई सामने न आवे । (Ashtanga Yoga)

राजयोग का भी ऐसा ही तात्पर्य है । जिस योग की साधना हर कोई कर सके, सरलतापूवर्क उसमें प्रगति कर सके और सफल हो सके, यह राजयोग है । हठयोग, कुण्डलिनी योग, लययोग, तंत्रयोग, शक्तियोग आदि उतने सरल नहीं है और न उनका अधिकार ही हर मनुष्य को है ।

उनके लिए विशेष तैयारी करनी पड़ती है, और विशेष प्रकार का रहन-सहन बनाना होता है, पर राजयोग में ऐसी शर्तें नहीं हैं, क्योंकि वह मनुष्य मात्र के लिए,स्त्री-पुरुष गृही-विरक्त, बाल-वृद्ध, शिक्षित-अशिक्षित सबके लिए समान रूप से उपयोगी और सरल है ।

योग का अर्थ है-मिलना । जिस साधना द्वारा आत्मा का परमात्मा से मिलना हो सकता है,उसे योग कहा जाता है ।

जीव की सबसे बड़ी सफलता यह है कि वह ईश्वर को प्राप्त कर ले, छोटे से बड़ा बनने के लिए, अपूर्ण से पूर्ण होने के लिए, बन्ध से मुक्त होने के लिए, वह अतीतकाल से प्रयत्न करता आ रहा है, चौरासी लक्ष योनियों को पार करता हुआ इतना आगे बढ़ा आया है, वह यात्रा ईश्वर से मिलने के लिए है, बिछड़ा हुआ अपनी स्नेहमयी माता को ढूँढ़ रहा है, उसकी गोदी में बैठने के लिए छटपटा रहा है ।

उस स्वर्गीय मिलन की साधना योग है और उधर बढ़ने का सबसे साफ, सीधा, सरल जो रास्त है, उसी का नाम राजयोग है ।

महर्षि पातंजलि ने इस योग को आठ भागों में विभाजन किया है । योगदर्शन के पाद 2 का 29 वाँ सूत्र है-

यम नियमासन प्राणायाम प्रत्याहार

धारणा ध्यान समाधयोङष्टावंगानि॥

अर्थात-यम, नियम, आसन, प्राणायाम,प्रत्याहार धारणा और समाधि योग के यह आठ अंग हैं ।

योग-दर्शन के पाद 2 सूत्र 30 में यम के सम्बन्ध में बताया गया है-अहिंसा सत्यास्तेय ब्रह्मचय्यार्परिग्रहा यमाः । अर्थात अहिंसा,सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यह पाँच यम है ।

पाठकों को यम शब्द से भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए,मृत्यु के देवता को भी यम कहते हैं, यहाँ उस यम से कोई तात्पर्य नहीं है यहाँ तो उपरोक्त पाँच व्रतों की एक संज्ञा नियत करके उसका नाम यम रखा गया है । यम शब्द से यहाँ उपरोक्त पाँच व्रतों का ही भाव है । आगे क्रमशः प्रत्येक के बारे में कुछ विवेचना की जाती है । (Ashtanga Yoga)

अष्टांग योग (Ashtanga Yoga) का पहला अंग – यम

महर्षि पतंजलि द्वारा योगसूत्र में वर्णित पाँच यम-

  1. अहिंसा
  2. सत्य
  3. अस्तेय
  4. ब्रह्मचर्य
  5. अपरिग्रह

शान्डिल्य उपनिषद तथा स्वात्माराम द्वारा वर्णित दस यम-

  1. अहिंसा
  2. सत्य
  3. अस्तेय
  4. ब्रह्मचर्य
  5. क्षमा
  6. धृति
  7. दया
  8. आर्जव
  9. मितहार
  10. शौच

अहिंसा

साधारण रीति से दुःख न देने को अहिंसा कहते हैं । अहिंसा का अर्थ है मारना,दुःख देना । आ अर्थ है रहित । इस प्रकार अहिंसा का अर्थ हुआ, न मारना,न सताना, दुःख न देना । ऐसे कार्य जिनके द्वारा किसी को शारीरिक या मानसिक कष्ट पहुँचता हो हिंसा कहलाते हैं, इसलिए उनका करना अहिंसा व्रत पालन करने वाले के लिए त्याज्य है । (Ashtanga Yoga)

महात्मा गाँधी के मतानुसार-कुविचार मात्र हिंसा है, उतावलापन हिंसा है, मिथ्याभाषण हिंसा है,द्वेष हिंसा है, किसी का बुरा चाहना हिंसा है, जिसकी दुनिया को जरूरत है उस पर कब्जा रखना भी हिंसा है, इसके अतिरिक्त किसी को मारना,कटुवचन बोलना, दिल दुःखाना, कष्ट देना तो हिंसा है ही इन सबसे बचना अहिंसा पालन कहा जायेगा । (Ashtanga Yoga)

सामान्य प्रकार से उपरोक्त पंक्तियों में अहिंसा का विवेचन हो गया पर यह अधूरा और असमाधान कारक है । कोई व्यक्ति लोगों के सम्पर्क से बिल्कुल दूर रहे और बैठे-बैठे भोजन वस्त्र की पूरी सुविधाएँ प्राप्त करता रहे तो शायद किसी हद तक ऐसी अहिंसा का पालन कर सके, पूर्ण रीति से तो तब भी नहीं कर सकता क्योंकि साँस लेने में अनेक जीव मरेंगे, पानी पीने में सूक्ष्म जल-जन्तुओं की हत्या होगी,पैर रखने में, लेटने में कुछ न कुछ जीव कुचलेंगे, शरीर और वस्त्र शुद्ध रखने में जुयें आदि मरेंगे, पेट में कभी-कभी कृमि पड़ जाते हैं, मल त्यागने पर उनकी मृत्यु हो जायेगी ।

स्थूल हिंसा से कुछ हद तक बच जाने पर भी उस एकान्त सेवी से पूरी अहिंसा का पालन नहीं हो सकता । तक क्या किया जाय? क्या आत्म हत्या कर लें? या योग मार्ग की पहली ही सीढ़ी पर चढ़ना असम्भव समझ कर निराश हो बैठें?

केवल शब्दार्थ से ही अहिंसा का भाव नहीं ढूँढ़ा जा सकता, इसके लिए योगिराज कृष्ण द्वारा अर्जुन को दी हुई व्यवहारिक शिक्षा का आश्रय लेना पड़ेगा । अर्जुन देखता है कि युद्ध में इतनी अपार सेना की हत्या होगी, इतने मनुष्य मारे जायेंगे, यह हिंसा है इससे मुझे भारी पातक लगेगा, वह धनुष बाण रख कर रथ के पिछले भाग में जा बैठता है और कहता है कि, हे अच्युत! मैं थोड़े से राज्य लोभ के लिए इतना बड़ा पाप न करूँगा, इस युद्ध में मैं प्रवृति न होऊँगा । (Ashtanga Yoga)

भगवान कृष्ण ने अर्जुन की इस शंका का समाधान करते हुए गीता के अठारह अध्यायों में योग का उपदेश दिया, उन्होंने अनेक तर्क,प्रमाण, सिद्धान्त और दृष्टिकोणों से उसे यह भली प्रकार समझा दिया कि कष्ट न देने मात्र को अहिंसा नहीं कहते, दुष्टों, दुराचारियों, अन्यायी, अत्याचारियों को, पापी और पाजियों को मार डालना भी अहिंसा है ।

जिस हिंसा से अहिंसा का जन्म होता, जिस लड़ाई से शान्ति की स्थापना होती है, जिस पाप से पुण्य का उद्भव होता है, उसमें कुछ भी अनुचित या अधर्म नहीं है । (Ashtanga Yoga)

कृष्ण ने अर्जुन से कहा इस मोटी बुद्धि को छोड़ और सूक्ष्म दृष्टि से विचार कर, अहिंसा की प्रतिष्ठा इसलिए नहीं है कि उससे किसी जीव का कष्ट कम होता है, कष्ट होना न होना कोई विशेष महत्त्व की बात नहीं है, क्योंकि शरीरों का तो नित्य ही नाश होता है और आत्मा अमर है, इसलिए मारने न मारने में हिंसा-अहिंसा नहीं है । अहिंसा का तात्पर्य है द्वेष रहित होना । (Ashtanga Yoga)

निजी राग द्वेष से प्रेरित होकर संसार के हित-अनहित का विचार किए बिना जो कार्य किए जाते हैं वे पूर्ण हैं । यदि लोक कल्याण के लिए, धर्म की वृद्धि के लिए किसी को मारना पड़े या हिंसा करनी पड़े तो उसमें दोष नहीं हैं ।

अर्जुन ने भगवान के वचनों का भली प्रकार मनन किया और जब उसकी समझ में अहिंसा का वास्तविक तात्पर्य आ गया तो महाभारत में जुट पड़ा । अठारह अक्षौहिणी सेना का संहार हुआ तो भी अर्जुन को कुछ पाप न लगा ।

एक आप्त वचन है कि-वैदिक हिंसा, हिंसा न भवति अर्थात विवेकपूर्वक की हुई हिंसा नहीं है । जिह्वा की चाटुकारिता के लोभ में निरपराध और उपयोगी पशु-पक्षियों का माँस खाने के लिए उनकी गरदन पर छुरी चलाना पातक है ।

अपने अनुचित स्वार्थ की साधना के लिए निर्दोष व्यक्तियों को दुःख देना हिंसा है । किन्तु निःस्वार्थ भाव से लोक-कल्याण के लिए तथा उसी प्राणी के उपकार के लिए यदि उसे कष्ट दिया जाय तो वह हिंसा नहीं वरन् अहिंसा ही होगी ।

डॉक्टर निःस्वार्थ भाव से रोगी की वास्तविक सेवा के लिए फोड़े की चीरता है, एक न्यायमूर्त जज समाज की व्यवस्था कायम रखने के लिए डाकू का फाँसी की सजा का हुक्म देता है एक धर्म प्रचारक अपने जिज्ञासु साधक को आत्म-कल्याण के लिए तपस्या के कष्टकर मार्ग में प्रवृत्त करता है ।

मोटी दृष्टि से देखा जाय तो वह सब हिंसा जैसा प्रतीत होता है पर असल में यह सच्ची अहिंसा है । गुण्डे बदमाशों को क्षमा कर देने वाला, हरामखोरों को दान देने वाला, दुष्टता को सहन करने वाला, देखने में अहिंसक सा प्रतीत होता है पर असल में वह घोर पातक, हिंसक, हत्यारा है । (Ashtanga Yoga)

वह एक प्रकार से अनजाने में दुष्टता की जहरीली बेल को सींचकर दुनिया के लिए प्राण घातक फल उत्पन्न करने में सहायक बनता है, ऐसी अहिंसा को जड़ बुद्धि अज्ञानी की अहिंसा कह सकते हैं ।

पातंजलि योग दर्शन के पाद 2 सूत्र 35 में कहा गया है कि-अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ बैर त्यागः अर्थात अहिंसा की साधना से उस योगी के निकट-मन में से बैर भाव निकल जाता है । बैर-भाव, द्वेष, प्रतिशोध की दृष्टि से किसी के चित्त को दुःखाना या शरीर को कष्ट देना सर्वथा अनुचित है, इस हिंसा से सावधानी के साथ बचना चाहिए ।

अहिंसक का अर्थ है प्रेम का पुजारी, दुर्भावना से रहित । सद्भावना और विवेक बुद्धि से यदि किसी को कष्ट देना आवश्यक जान पड़े तो अहिंसा की मर्यादा के अन्तर्गत उसी गुंजायश है । अहिंसक को बैर-भाव छोड़ना होता है, क्रोध पर काबू करना होता है, निजी हानि-लाभ की अपेक्षा कुछ ऊँचा उठना पड़ता है, उदार, निष्पक्ष और न्यायमूर्त बनना पड़ता है, तब उस दृष्टिकोण से जरा भी निर्णय किया जाय वह अहिंसा ही होगी ।

परमार्थ के लिए की हुई हिंसा को किसी भी प्रकार अहिंसा से कम नहीं ठहराया जा सकता है ।

महात्मा गाँधी का कथन है कि-अहिंसा से हम जगत को मित्र बनाना सीखाते हैं, ईश्वर की-सत्य की महिमा अधिकाधिक जान पड़ती है, संकट सहते हुए भी शांति और सुख में वृद्धि होती है, हमारा साहस-हिम्मत बढ़ती है । हम कर्तव्य-अकर्तव्य का विचार सीखते हैं ।

अभिमान दूर होता है, नम्रता बढ़ती है । परिग्रह सहज ही कम होता है और देह के अन्दर भरा हुआ मैल रोज कम होता जाता है । अहिंसा कायरों का नहीं वीरों का धर्म है । बैर त्याग कर, प्रेम भावना को ,आत्मीयता को, प्रमुख स्थान देते हुए, बुराई का मुकाबला करना अहिंसा है । (Ashtanga Yoga)

बहादुरी, निर्भीकता, स्पष्टता, सत्यनिष्ठा,इस हद तक बढ़ा लेना कि तीर तलवार उसके आगे तुच्छ जान पड़ें, अहिंसा की साधना है । शरीर की नश्वरता को समझते हुए, उसके न रहने का अवसर आने पर विचलित न होना अहिंसा है ।

अहिंसक की दृष्टि दूसरों को सुख देने की होती है, अधर्म और अज्ञान को हटाने से ही दुःख की निवृत्ति और सुख की प्राप्ति हो सकती है । अहिंसा का पुजारी अपने और दूसरे के अधर्म और अज्ञान को हटाने का अविचल भाव से प्रबलतम प्रयत्न करता है जिससे सच्चा और स्थायी सुख प्राप्त हो, इस महान कार्य के लिए यदि अपने को या दूसरों को कुछ कष्ट सहना भी पड़े तो उसे उचित समझकर अहिंसक उसके लिए सदा तैयार ही रहता है ।

सत्य

मोटे तौर से जो बात जैसी सुनी है उसे वैसी ही कहना सत्य कहा जाता है । किन्तु सत्य की यह परिभाषा बहुत ही अपूर्ण और असमाधानकारक है । (Ashtanga Yoga)

सत्य एक अत्यन्त विस्तीर्ण और व्यापक तत्व है । वह सृष्टि निर्माण के आधार स्तम्भों में सब से प्रधान है । सत्य भाषण उस महान सत्य का एक अत्यन्त छोटा अणु है, इतना छोटा जितना समुद्र के मुकाबले में पानी की एक बूँद । (Ashtanga Yoga)

सत्य बोलना चाहिए, पर सत्य बोलने से पहले सत्य की व्यापकता और उसके तत्व ज्ञान को जान लेना चाहिए, क्योंकि देश, काल और पात्र के भेद से बात को तोड़-मरोड़ कर या अलंकारिक भाषा में कहना पड़ता है । धर्म ग्रन्थों में मामूली से कर्मकाण्ड़ के फल बहुत ही बढ़ा-चढ़ा कर लिखे गए हैं ।

जैसे गंगा स्नान से सात जन्मों के पाप नष्ट होना, व्रत, उपवास रखने से स्वर्ग मिलना, गौ दान से वैतरणी तर जाना, मूर्ति पूजा से मुक्ति प्राप्त होना, यह सब बातें तत्व ज्ञान दृष्टि से असत्य हैं, क्योंकि इन कमर्काण्ड़ों से मन में पवित्रता का संचार होना और बुद्धि को कर्म की ओर झुकना तो समझ में आता है, पर यह समझ में नहीं आता कि इतनी सी मामूली क्रियाओं का इतना बड़ा फल जैसे महान साधनों की क्या आवश्यकता रहती? टेक सेर मुक्ति का बाजार गर्म रहता । (Ashtanga Yoga)

अब प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या वह धर्म ग्रन्थ झूठे हैं? क्या उन ग्रन्थों के रचयिता महानुभवों ने असत्य भाषण किया है? नहीं उनके कथन में भी रत्ती भर झूठ नहीं है और न उन्होंने किसी स्वार्थ बुद्धि से असत्य भाषण किया है । (Ashtanga Yoga)

उन्होंने एक विशेष श्रेणी के, सत्य बुद्धि के, अविश्श्वासी, आलसी और लालची व्यक्तियों को उनकी मनोभूमि परखते हुए एक खास तरीके से अलंकारिक भाषा में समझाया है । ऐसा करना अमुक श्रेणी के व्यक्तियों के लिए आवश्यक था, इसलिए धर्म ग्रन्थों का वह आदेश एक सीमा में सत्य ही है ।

बच्चे के फोड़े पर मरहम पट्टी करते हुए डॉक्टर उसे दिलासा देता है । बच्चे! डरो मत, जरा भी तकलीफ न होगी । बच्चा उसकी बात पर विश्वास कर लेता है, किन्तु डॉक्टर की बात झूठी निकलती है । (Ashtanga Yoga)

मरहम पट्टी के वक्त बच्चों को काफी तकलीफ होती है, वह सोचता है कि डॉक्टर झूठा है, उसने मेरे साथ असत्य भाषण किया परन्तु असल में वह झूठ बोलता नहीं है ।

अध्यापक बच्चों को पाठ पढ़ाते हैं, गणित सिखते हैं, समझाने के लिए उन्हें ऐसे उदाहरण देने पड़ते हैं, जो अवास्तविक और असत्य होते हैं, फिर भी अध्यापक को झूठा नहीं कहा जाता । (Ashtanga Yoga)

जिन्हें मानसिक रोग हो जाते हैं या भूत-प्रेत लगने का बहम हो जाता है, उनका तान्त्रिक या मनोवैज्ञानिक उपचार इस प्रकार करना पड़ता है जिससे पीड़ित का बहम निकल जाय । भूत लगने पर भूतहे ढ़ंग से उसे अच्छा किया जाता है, यदि बहम बता दिया जाय तो रोगी का मन न भरेगा और उसका कष्ट न मिटेगा । (Ashtanga Yoga)

तान्त्रिक और मनोविज्ञान के उपचार में प्रायः नब्बे फीसदी झूठ बोलकर रोगी को अच्छा करना पड़ता है, परन्तु वह सब झूठ की श्रेणी में नहीं ठहराया जाता ।

राजनीति में अनेक बार झूठ को सच सिद्ध किया जाता है । दुष्टों से अपना बचाव करने के लिए झूठ बोला जा सकता है । दम्पति अपने गुप्त सहवास को प्रकट नहीं करते । आर्थिक व्यापारिक या अन्य ऐसे ही भेदों को प्रायः सच-सच नहीं बताया जाता । (Ashtanga Yoga)

कई बार सत्य बोलना भी निषिद्ध होता है । काने को काना और लँगड़ा को लँगड़ा कहकर सम्बोधन करना कोई सत्य भाषण थोड़े ही है । फौजी गुप्त भेदों को प्रकट कर देने वाला अथवा दुश्मन को अपने देश की सच्ची सूचना देने वाला अपराधी समझा जाता है और कानून से उसे कठोर सजा मिलती है । भागी हुई गाय का पता कसाई को बता देना क्या सत्य भाषण हुआ?

इस प्रकार बोलने में ही सत्य को सर्वादित कर देना एक बहुत बड़ा भ्रम है, जिसमें अविवेकी व्यक्ति ही उलझे रह सकते हैं । सच तो यह है कि लोक-कल्याण के लिए देश, काल और पात्र का ध्यान रखते हुए नग्न सत्य की अपेक्षा अलंकारिक सत्य भाषण से ही काम, लेना पड़ता है । जिस वचन से दूसरों की भलाई होती हो, सन्मार्ग के लिए प्रोत्साहन मिलता हो, वह सत्य है ।

कई बार हीन चरित्र वालों की झूठी प्रशंसा करने पर वे एक प्रकार की लोक लाज में बँध जाते हैं और सम्मोहन विद्या के अनुसार अपने को सचमुच प्रशंसनीय अनुभव करते हुए निश्चयपूवर्क प्रशंसा योग्य बन जाते हैं ।

ऐसा असत्य भाषण सत्य कहा जायेगा । किसी व्यक्ति के दोषों को खोल-खोल कर उससे कहा जाय तो वह अपने को निराश, पराजित और पतित अनुभव करता हुआ वैसा ही बन जाता है । ऐसा सत्य, असत्य से भी बढ़कर निन्दनीय है ।

भाषण सम्बन्धी सत्य की परिभाषा होनी चाहिए कि जिससे लोक-हित हो वह सत्य और जिससे अहित हो वह असत्य है । मित्र धर्म का विवेचन करती हुई रामायण उपदेश देती है कि-गुण प्रकटै अवगुणहिं दुरावा वहाँ दुराव को असत्य को, धर्म माना गया है ।

आपका भाषण कितना सत्य है, कितना असत्य, इसकी परीक्षा इस कसौटी पर कीजिए कि इससे संसार का कितना हित और कितना अहित होता है? सद्भावनाओं की उन्नति होती है या अवनति, सद्विचारों का विकास होता है या विनाश । (Ashtanga Yoga)

पवित्र उद्देश्य के साथ निःस्वार्थ भाव से परोपकार के लिए बोला हुआ असत्य भी सत्य है और बुरी नीयत से, स्वार्थ के वशीभूत होकर पर पीड़ा के लिए बोला गया सत्य भी असत्य है । इस मर्म को भलीभाँति समझकर गिरह में बाँध लेना चाहिए । (Ashtanga Yoga)

वास्तविक और व्यापक सत्य ऊँची वस्तु है । वह भाषण का नहीं, वरन् पहचानने का विषय है । समस्त तत्वज्ञानी उसी महान तत्व की अपनी-अपनी दृष्टि के अनुसार व्याख्या कर रहे हैं । विश्व की रंगस्थली, उसमें नाचने वाली कठपूतलियाँ, नचाने वाला तन्त्री तत्वतः क्या है, इसका उद्देश्य और कार्य-कारण क्या है, इस भूल-भुलैयों के खेल का दरवाजा कहाँ है, यह बाजीगरी विद्या कहाँ से और क्योंकर संचालित होती है? इसका मर्म सत्य का शोध है । (Ashtanga Yoga)

ईश्वर, जीव, प्रकृति के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करके अपने को भ्रम-बन्धनों से बचाते हुए परम पद प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ना मनुष्य जीवन का ध्रुव सत्य है । उसी सत्य के प्राप्त करने के लिए हमारा निरन्तर उद्योग होना चाहिए । (Ashtanga Yoga)

भगवान वेद व्यास ने योगदर्शन 2/38 का भाष्य करते हुए सत्य की विवेचना इस प्रकार की है-

परत्र स्वबोध संक्रान्तये बागुप्ता सा यदि वञ्चिता भरान्ता व प्रतिपत्ति बन्ध्या वा भवेदिति । एथ सवर्भूतोपकराथर् प्रवृत्ता, त भूतोपघाताय । यदि चैवमय्यभिधीयमाना भूतोपघात परैवस्यान्न सत्यं भवेत् पापमेव भवेत् ।

अर्थात-सत्य वह है चाहे वह ठगी, भ्रम, प्रतिपत्ति बन्ध्या युक्त हो अथवा रहित । तो प्राणिमात्र के उपकारार्थ प्रयुक्त किया जाय न कि किसी प्राणी के अनिष्ट के लिए । यदि सत्यतापूर्वक कही गई यथार्थ बात से प्राणियों का अहित होता है-तो वह सत्य नहीं । (Ashtanga Yoga)

प्रत्युत सत्याभाष ही है और ऐसा सत्य भाषण असत्य में परिणत होकर पाप कारक बन जाता है । जैसे कसाई के पूछने पर कि-गाय इधर गई है? यदि हाँ में उत्तर दिया जाय तो यह सत्य प्रतीत होने पर भी सत्य नहीं, प्रत्युत प्राणी घातक है । अन्य उपाय न रहने पर विवेकपूर्वक सत्कार्य के लिए असत्य भाषण करना भी सत्य ही है ।

महाभारत ने सत्य की मीमाँसा इस प्रकार की है-

न तत्व वचन सत्यं, न तत्व वचनं मृषा ।

यद्भूत हितमत्यन्तम् तत्सयमिति कथ्यते॥

अथार्त्-बात को ज्यों को त्यों कह देना सत्य नहीं है और न बात को ज्यों की त्यों कह देना असत्य है । जिसमें प्रणियों का अधिक हित होता है, वही सत्य है ।

सत्य को वाणी का एक विशेषण बना देना उस महातत्व को अपमानित करना हैं । सत्य बोलना मामूली बात है जिसमें आवश्यकतानुसार हेर-फेर भी किया जा सकता है । सत्य को ढूँढ़ना, वास्तविकता का पता लगाना और जो-जो बात सच्ची प्रतीत हो उस पर प्राण देकर भी दृढ़ रहना, यह सत्य परायण है । (Ashtanga Yoga)

यम की दूसरी सीढ़ी सत्य बोलना नहीं, सत्य परायण होना है । योग मार्ग के अभ्यासी के सत्यवादी होने की अपेक्षा सत्य परायण होने को साहस, निर्भीकता और ईमानदारी के साथ करना चाहिए । (Ashtanga Yoga)

अस्तेय

चोरी न करना अस्तेय को यही संक्षिप्त अर्थ है, पराई चीज को बिना उसकी आज्ञा के गुप्त रूप से ले लेने को चोरी कहते हैं । दूसरे की कमाई का अनुचित रूप से अपहरण करना चोरी है,जिस वस्तु पर न्यायतःअपना स्वत्व नहीं है उसे उसके स्वामी की बिना जानकारी में या बलात्कारपूर्वक ले लेना स्तेय है, इससे बचना अस्तेय कहा जायेगा । (Ashtanga Yoga)

पराई चीज को बिना उसकी स्वीकृति के ले लेना यह चोरी का मोटा अर्थ है । पशुओं का दूध, भेड़ के बाल, मक्खियों का शहद, यह पराई चीज भी हैं और उनकी स्वीकृति के बिना भी ली जाती हैं । पिता की कमाई हुई जायदाद पराई है यदि पिता न चाहते हों तो भी उनके बाद उस सम्पत्ति का अधिकार पुत्र को ही प्राप्त होगा । (Ashtanga Yoga)

अपराधी से अदालत जुर्माना वसूल करती है, राज्याधिकारी आयकर,चुँगी आदि वसूल करते हैं, वह रकमें पराई हैं और मालिक इच्छापूर्वक भी नहीं देते तो भी वह चोरी नहीं है । (1) पराई चीज और(2) बिना आज्ञा इन दो ही तत्वों के आधार पर स्तेय का ठीक-ठीक निर्णय नहीं हो सकता । मान लीजिए कि व्यक्ति दबाव के कारण किसी वस्तु को देने के लिए तैयार किया जाता है

और वह लाचारी में आज्ञा दे देता है तो क्या वह अस्तेय हो गया? कोई व्यक्ति अपने पास दूसरे की अमानत जमा किए हुए है किन्तु अब नीयत बिगड़ जाने से उस पर अपनी मालिकी बताता है ओर असली मालिक को उसे लौटाने से इन्कार करता है, क्या उससे वह अमानत बलपूर्वक न लौटानी चाहिए । (Ashtanga Yoga)

क्या वर्तमान समय में पराई चीज दिखाई पड़ने के कारण और बेइमानी से आज्ञा न मिलने के कारण उस अमानत को छोड़ बैठना चाहिए?

मोटे मौर पर स्तेय और अस्तेय की विवेचना करने पर बहुत भ्रम हो सकता है । बहुत बार ऐसा होता है कि वह वस्तु पराई भी नहीं है और आज्ञा का भी प्रश्न नहीं उठता तो भी वह चोरी हो जाती है । जैसे एक दुकानदार अपने बाँट कम रखता है, पलड़ों में पासंग रखता है या कम तोलता है, दुकान में रखी हुई चीजें पराई नहीं है और उनमें से इतनी निकाल लेने या कम देने के लिए किसी से आज्ञा लेने की भी जरूरत नहीं है । (Ashtanga Yoga)

सेर भर (1 सेर=933 ग्राम) के स्थान पर उसने पन्द्रह छटांक (1 छटांक=58 ग्राम) चीज दी, वह एक छटांक जो बचाया गया है, शाब्दिक परिभाषा के अनुसार वह चोरी में शुमार नहीं होता तो भी वास्तव में वह चोरी ही है । दर्जी लोग सिलाई में कपड़ा बचाते हैं, धोबी कपड़ों को कई दिन घसीटकर पहनते हैं, चक्की वाले आटा बचाते हैं, नौकर आठ पैसे की चीज मँगाने पर सात पैसे की लाकर देते हैं, असली मालिक को इन चोरियों का पता नहीं लग पाता,

इस ओर अधिक ध्यान भी नहीं जाता तो भी इनकी गणना चोरी में ही होगी, मालिक को अपनी हानि का पता न चले और गुप्त या अप्रत्यक्ष रूप से कोई चुपके-चुपके कुछ करता रहे तो भले ही वह प्रकट न होने पाये पर होगी वह चोरी ही । (Ashtanga Yoga)

कर्तव्य की चोरी अपने ढंग की बड़ी गहत चोरी है । मजदूरी तय करके जितना समय या जैसा काम करने का ठहराव किया गया है उसमें कभी करना, आलस्य करना, जो चुराना , बेगार भुगतना आजकल मामुली बात हो गई है पर यह ठीक वैसी ही चोरी है जैसे किसी का ताला तोड़कर माल असबाब ले जाना ।

विश्वसनीय गुप्त कार्य को करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेकर उसका भेद प्रकट कर देना, किसी की कृति को बनाना, अनाधिकार चेष्टा करना चोरी है । अपने फर्जों को अदा न करना, आश्रितों की उपेक्षा करके स्वयं विशेष सुविधाएँ भोगना, यह भी उसी सीमा में आता है जैसे-बच्चों से छिपाकर कोई चीज खाते हैं । पड़ी हुई चीज मिले तो उसके मालिक की तलाश कर उस तक पहुँचानी चाहिए,सब पर प्रकट कर देना चाहिए या मालिक का पता न चले तो अधिकारी संस्था को सौंप देना चाहिए । (Ashtanga Yoga)

यदि ऐसा न किया जाय और वह वस्तु अपने पास चुपचाप रखली जाय तो वह भी चोरी है, न करने योग्य कार्य के लिए, अग्राह्य वस्तु के लिए, मन ललचाना, इसी श्रेणी का कार्य है ।

अपना नियत कर्तव्य करने के बदले में पुरस्कार माँगना, न करने योग्य कार्य को करने के लिए भेंट लेना यह दोनों प्रकार की रिश्वतें चोरी ही तो हैं । रिश्वतों का किस कदर बाजार गर्म है यह किसी से छिपा नहीं है, जिसको जिस काम के लिए नियत किया गया है वह उसी काम को करने के लिए अपना हक माँगता है, रिश्वत हक कहलाने लगी है ।

यह किसी विशेष कृपा के लिए नहीं वरन् ठीक तरह भलमनसाहत से काम पूरा कर देने के लिए हक माँगा जाता है यदि न दिया जाय तो ऐसी अड़चनें डाली जाती हैं जिनको सहन करना मध्यमवृत्ति के मनुष्य के लिए बड़ा कठिन होता है । अधिक हक देने पर तो न करने योग्य कामों को हँसी खुशी से कर देते हैं । (Ashtanga Yoga)

जिन लोगों से न्याय और सद्व्यवहार की आशा की जानी चाहिए वहाँ रिश्वत ने हक का रूप धारण कर लिया है, चोरी को सीनाजोरी की जुर्रत हो गई है । यह हरकतें अब बन्द होनी चाहिए । (Ashtanga Yoga)

अस्तेय का वास्तविक तात्पर्य है-अपना वास्तविक हक खाना धर्म पूर्वक जो वस्तु जितनी मात्रा में अपने को मिलनी चाहिए उसे उतनी ही मात्रा में लाना, पूरा एवज चुकाकर किसी वस्तु को ग्रहण करने का ध्यान रखा जाय तो चोरी से सहज ही छुटकारा मिल सकता है ।

जो कुछ आपको मिल रहा है उसके बारे में विचार कीजिए कि क्या वास्तव में इस वस्तु पर मेरा धर्म पूर्वक हक है? किसी दूसरे का भाग तो नहीं खा रहा हूँ? जितनी मुझे मिलनी चाहिए उससे अधिक कर रहा हूँ? अपने कर्तव्य में कमी तो नहीं ला रहा हूँ? जिनको देना चाहिए उनको दिए बिना तो नहीं ले रहा हूँ? इन पाँच प्रश्नों की कसौटी पर यदि अपनी प्राप्त वस्तु को कस लिया जाय तो यह मालूम हो सकता है कि इसमें चोरी तो नहीं है या चोरी का कितना अंश है । (Ashtanga Yoga)

किसी का ताला तोड़कर या जेब काटकर कुछ तो चोरी है ही, साथ ही कर्तव्य में त्रुटि रखना और हक से अधिक लेना भी चोरी है । इन चोरियों से बचते हुए अपनी पसीने की कमाई पर निर्भर रहना चाहिए । (Ashtanga Yoga)

स्वयं चोरी से बचना तो आवश्यक है ही, साथ ही दूसरों को भी बचाना चाहिए, कम से कम चोरी में सहयोग करना तो बन्द कर ही देना चाहिए । रिश्वत देकर यदि कोई काम बनता हो, और न देने से हानि हो तो उस हानि को ही सहन करना चाहिए, क्योंकि पशु हत्या में जैसे काटने वाले, बेचने वाले, खाने वाले, पकाने वाले सबको पाप लगता है वैसे ही चोरी के काम में किसी प्रकार मदद करने या चोरी की हिम्मत बढ़ने देने से अपने को भी पाप का भागी होना पड़ता है । (Ashtanga Yoga)

यदि अपना या किसी दूसरे का हक कोई दुष्ट दुरात्मा बलात्कारपूर्वक अपहरण करता हो तो उसके विरुद्ध संघर्ष करना चाहिए ताकि विश्व परिवार में से चोरी और अनीति की थोड़ी-बहुत मात्रा कम हो । स्वयं चोरी न करना और न दूसरों को करने देना यह एक ही अस्तेय धर्म के दो अंग हैं, योग मार्ग के साधक को दोनों ओर उसी प्रकार ध्यान रखना चाहिए जैसे साइकिल चलाने वाला दोनों पैरों को समान रूप से घुमाता है ।

वास्तविक और व्यापक सत्य ऊँची वस्तु है । वह भाषण का नहीं, वरन् पहचानने का विषय है । समस्त तत्वज्ञानी उसी महान तत्व की अपनी-अपनी दृष्टि के अनुसार व्याख्या कर रहे हैं । विश्व की रंगस्थली, उसमें नाचने वाली कठपूतलियाँ, नचाने वाला तन्त्री तत्वतः क्या है, इसका उद्देश्य और कार्य-कारण क्या है, इस भूल-भुलैयों के खेल का दरवाजा कहाँ है, यह बाजीगरी विद्या कहाँ से और क्योंकर संचालित होती है? इसका मर्म सत्य का शोध है । ईश्वर, जीव, प्रकृति के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करके अपने को भ्रम-बन्धनों से बचाते हुए परम पद प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ना मनुष्य जीवन का ध्रुव सत्य है । उसी सत्य के प्राप्त करने के लिए हमारा निरन्तर उद्योग होना चाहिए ।

भगवान वेद व्यास ने योगदर्शन 2/38 का भाष्य करते हुए सत्य की विवेचना इस प्रकार की है-

परत्र स्वबोध संक्रान्तये बागुप्ता सा यदि वञ्चिता भरान्ता व प्रतिपत्ति बन्ध्या वा भवेदिति । एथ सवर्भूतोपकराथर् प्रवृत्ता, त भूतोपघाताय । यदि चैवमय्यभिधीयमाना भूतोपघात परैवस्यान्न सत्यं भवेत् पापमेव भवेत् ।

अर्थात-सत्य वह है चाहे वह ठगी, भ्रम, प्रतिपत्ति बन्ध्या युक्त हो अथवा रहित । तो प्राणिमात्र के उपकारार्थ प्रयुक्त किया जाय न कि किसी प्राणी के अनिष्ट के लिए । यदि सत्यतापूर्वक कही गई यथार्थ बात से प्राणियों का अहित होता है-तो वह सत्य नहीं ।

प्रत्युत सत्याभाष ही है और ऐसा सत्य भाषण असत्य में परिणत होकर पाप कारक बन जाता है । जैसे कसाई के पूछने पर कि-गाय इधर गई है? यदि हाँ में उत्तर दिया जाय तो यह सत्य प्रतीत होने पर भी सत्य नहीं, प्रत्युत प्राणी घातक है । अन्य उपाय न रहने पर विवेकपूर्वक सत्कार्य के लिए असत्य भाषण करना भी सत्य ही है ।

महाभारत ने सत्य की मीमाँसा इस प्रकार की है-

न तत्व वचन सत्यं, न तत्व वचनं मृषा ।

यद्भूत हितमत्यन्तम् तत्सयमिति कथ्यते॥

अथार्त्-बात को ज्यों को त्यों कह देना सत्य नहीं है और न बात को ज्यों की त्यों कह देना असत्य है । जिसमें प्रणियों का अधिक हित होता है, वही सत्य है ।

सत्य को वाणी का एक विशेषण बना देना उस महातत्व को अपमानित करना हैं । सत्य बोलना मामूली बात है जिसमें आवश्यकतानुसार हेर-फेर भी किया जा सकता है । सत्य को ढूँढ़ना, वास्तविकता का पता लगाना और जो-जो बात सच्ची प्रतीत हो उस पर प्राण देकर भी दृढ़ रहना, यह सत्य परायण है । यम की दूसरी सीढ़ी सत्य बोलना नहीं, सत्य परायण होना है । (Ashtanga Yoga)

योग मार्ग के अभ्यासी के सत्यवादी होने की अपेक्षा सत्य परायण होने को साहस, निर्भीकता और ईमानदारी के साथ करना चाहिए । (Ashtanga Yoga)

ब्रह्मचर्य

आमतौर से ब्रह्मचर्य का अर्थ वीर्य पात न करना समझ जाता है । जो व्यक्ति स्त्री सम्पर्क से बचते हैं, उन्हें ब्रह्मचारी कहा जाता है । यह आधा अर्थ हुआ, आधा अभी शेष है । (Ashtanga Yoga)

ब्रह्म का अर्थ है परमात्मा में आचरण करना जीवन लक्ष में तन्मय हो जाना, सत्य की शोध में सब ओर चित्त हटाकर जुट पड़ना, ब्रह्म का ही आचरण है । इसके साधनों में वीयर्पात न करना भी एक है ।

महात्मा गाँधी ने इस सम्बन्ध में बहुत ही उत्तम कहा है-ब्रह्मचर्य का मूल अर्थ सब याद रखें । ब्रह्मचर्य अर्थात ब्रह्म की-सत्य की शोध में चर्या अर्थात तत्सम्बन्धी आचार । (Ashtanga Yoga)

इस मूल अर्थ से सर्वेईन्द्रिय संयम का विशेष अर्थ निकलता है सिर्फ जननेन्द्रिय संयम के अधूरे अर्थ को तो हम भुला ही दें । जननेन्द्रिय निरोध को ही ब्रह्मचर्य का पालन माना गया है । मेरी राय में यह अधूरी और खोटी व्याख्या है । (Ashtanga Yoga)

विषय मात्र का निरोध ही ब्रह्मचर्य है । जो और इन्द्रियों को जहाँ तहाँ भटकने देकर केवल एक ही इन्द्री को रोकने का प्रयत्न करता है, वह निष्फल प्रयत्न करता है । कान से विकार की बातें सुनना, आँख से विकार उत्पन्न करने वाली वस्तु देखना, जीभ से विकारोत्तेजक वस्तु चखना, हाथ से विकारों को भड़काने वाली चीज को छूना और साथ ही जननेन्द्रिय को रोकने का प्रयत्न करना, यह तो आग में हाथ डालकर जलने से बचने का प्रयत्न करने के समान हुआ ।

इसीलिए जो जननेन्द्रिय को रोकने को निश्चय करे उसे पहल ही से प्रयत्न इन्द्री को उस इन्द्रियों के विकारों से रोकने का निश्चय कर ही लिया जाना चाहिए । (Ashtanga Yoga)

मैंने सदा से यह अनुभव किया है कि ब्रह्मचर्य की संकुचित व्याख्या से नुकसान हुआ है । मेरा तो यह निश्चित मत है और अनुभव है कि यदि हम सब इन्द्रियों को एक साथ वश में कर लें तो जननेन्द्रियों को वश में करने को प्रयत्न शीघ्र ही सफल हो सकता है, तभी उसमें सफलता प्राप्त की जा सकती है । इसमें मुख्य स्वाद इन्द्री है । (Ashtanga Yoga)

मेरा अपना अनुभव तो यह है कि यदि अस्वाद व्रत का भलीभाँति पालन किया जाय तो जननेन्द्री का संयम बिल्कुल आसान हो जाय । स्वाद की दृष्टि से किसी वस्तु को न खाकर आवश्यकता के विचार से लेना अस्वाद है । (Ashtanga Yoga)

ब्रह्मचर्य का पालन मन, वचन और काया से होना चाहिए । हमने गीता में पढ़ा है कि जो शरीर को काबू में रखता हुआ जान पड़ता है पर मन से विकार को पोषण किया करता है वह मूढ़,मिथ्याचारी है । मन को विकारपूर्ण रहने देकर शरीर को दबाने की कोशिश करना हानि कारक है । जहाँ मन है वहाँ अन्त को शरीर भी घिसटे बिना नहीं रहता ।

यहाँ एक भेद समझ लेना जरूरी है । मन को विकार वश होने देना एक बात है और मन का अपने आप अनिच्छा से बलात् विकार को प्राप्त होना या होते रहना दूसरी बात है । इस विकार में यदि हम सहायक न बनें तो आखिर जीत हमारी ही है । हम प्रतिपल यह अनुभव करते हैं कि शरीर तो काबू में रहता है पर मन नहीं रहता । (Ashtanga Yoga)

इसलिए शरीर को तुरन्त ही वश में करके मन को वश में करने की रोज कोशिश करने से हम अपने कर्तव्य का पालन करते हैं-कर चुकते हैं ।

वीर्य का उपयोग तो शारीरिक और मानसिक शक्ति को बढ़ाने में है । विषय भोग में उसका उपयोग करना, उसका अति दुरुपयोग है, इसके कारण वह कई रोगों को मूल बन जाता है । (Ashtanga Yoga)

जीवनोद्देश्य की पूर्ति में, सत्कामो द्वारा ईश्वर को प्रसन्न करने के प्रयत्न में, ब्रह्म भावना की चर्या में तन्मयता प्राप्त करने के लिए इन्द्रियों को संयम अत्यन्त आवश्यक है । जिसकी इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय में दौड़ी फिरती हैं, उसका चित्त एक स्थान पर ठहर नहीं सकता और न उच्च उद्देश्यों में दिलचस्पी ले सकता है । (Ashtanga Yoga)

दीर्घ जीवन, निरोगता, शरीर की पुष्टता, सुड़ौलता, बलबुद्धि, तेज, बुद्धि की प्रखरता आदि शारीरिक लाभों की नीव इन्द्रिय संयम के ऊपर रखी होती है, शक्तियों का खर्च भोगों में न होगा तो उसके द्वारा शरीर और मस्तिष्क बलवान हो सकेगा अन्यथा जिस प्रकार फूटे हुए दीपक में से तेल चूता रहता है तो वह अधिक समय तक अधिक प्रकाश के साथ न जल सकेगा, जिस वृक्ष की जड़ों में कीड़े या दीमक लग रहे हों वह निर्बल और अल्पजीवी ही होगा यही बात मनुष्य की है । (Ashtanga Yoga)

असंयम के कारण इन्द्रिय भोगों में जिसकी शक्ति अधिक मात्रा में खर्च होती रहती है, वह न तो शरीरिक दृष्टि से निरोग,बलवान एवं दीर्घजीवी हो सकता है और न मानसिक दृष्टि से ही मेधावी, मनस्वी एवं प्रभावशाली हो सकता है, फिर ब्रह्म के आचरण में रत होना तो दूर की बात है ।

इन्द्रिय संयम का तात्पर्य है, विवेक के साथ मर्यादा के अन्तर्गत इन्द्रियों का उपयोग होना । इन्द्रियों के आधीन अपने को इतना अधिक नहीं होना चाहिए कि भोगेच्छा को रोका न जा सके या रोकने में बहुत आदत डालनी चाहिए कि इन्द्रियों की इच्छा को जब चाहे तब आसानी से रोक सकें और भोग सामने हो तो भी उसे छोड़ सकें । (Ashtanga Yoga)

कहने को पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं पर वास्तव में दो का ही संयम करना है । नाक, कान, आँख के भोग तो कभी-कभी और कम मात्रा में मिलते हैं, इसलिए उनकी अधिक चाट नहीं होती और न उनमें इतनी प्रबलता ही होती है । जिन पर काबू पाना है, वह हैं-स्वाद और कामवासना । (Ashtanga Yoga)

जीभ के चटोरपन की प्रेरणा से किसी भी वस्तु को खाने से इन्कार कर देना चाहिए । चटपटे, मीठे,खारी, खट्टे, चिकने पदार्थों को देखकर चटोरे मनुष्यों के मुँह में पानी भर आता है, इस वृत्ति को रोकना चाहिए । (Ashtanga Yoga)

जब इस प्रकार मन चल रहा हो तो हठात् उस वस्तु को न खाने की प्रतिज्ञा करनी चाहिए और दृढ़तापूर्वक उसका पालन करना चाहिए ।

कुछ समय के लिए बीच-बीच में कुछ समय तक नमक और मीठा छोड़ने का प्रयोग करते रहना चाहिए जो वस्तु आवश्यक और लाभदायक हो उसे स्वाद रहित होते हुए भी सेवन करना चाहिए । (Ashtanga Yoga)

इसी प्रकार गृहस्थ होते हुए भी कभी-कभी कुछ समय के लिए ब्रह्मचर्य से रहने के व्रत उन्हें पूरा करते रहना चाहिए । अन्य स्त्रियों को बहिन या पुत्री की दृष्टि से देखना चाहिए । कुदृष्टि के उत्पन्न होते ही अपना एक कान ऐंठ कर अपने आप जोर से चपत लगानी चाहिए । गन्दी पुस्तकों से, तस्वीरों से और संगीत से बचना चाहिए । (Ashtanga Yoga)

इस प्रकार धीरे-धीरे स्वाद और कामवासना पर विजय प्राप्त की जा सकती है । किसी बात को पूरा करने के लिए मनुष्य दृढ़ प्रतिज्ञा हो जाय और प्रयत्न बराबर जारी रखें तो कोई कारण नहीं कि उसमें सफलता प्राप्त न हो । (Ashtanga Yoga)

अपरिग्रह

अपरिमित के लिए परिमित का त्याग

प्रतिदिन कुछ-न-कुछ दान करना।

दूसरों की प्रशंसा करना। उनके गुणों और सत्कार्यों को सराहना।

परिग्रह का सामान्य अर्थ है, ‘रोकना’। धन, विभूति, ज्ञान, वैभव, समय, साधन आदि की गति में अवरोध उत्पन्न किया जाता है, तो परिग्रह का पाप होने लगता है, बहते हुए जल को रोक ले तो वह सड़ने और सूखने लगता है, हवाओं को कैद करने की कोशिश में घर के द्वार और रोशनदान बंद कर लें तो जीवन देने वाली वायु दम घोंटने लगती है। (Ashtanga Yoga)

समय को रोकने की कोशिश करें, काम को टालते जाने की नीति अपनाएँ, तो एक स्थिति ऐसी आती है जब कुछ करते नहीं बनता। इन उदाहरणों से मनीषियों ने एक यही तथ्य समझाया है कि प्रकृति ने जो अनुदान दिए हैं, उन्हें अपने प्रवाह के अनुसार चलते रहने दें। उन्हें रोकें नहीं। (Ashtanga Yoga)

परिग्रह के ठीक विपरीत है अपरिग्रह। रूढ़ अर्थ में इसकी परिभाषा धन-संपदा का संचय नहीं करने के रूप में की जाती है। (Ashtanga Yoga)

इसी अर्थ में ग्रहण कर लें तो दुनिया में समृद्धि आ ही नहीं सकेगी। उद्योग, व्यापार और प्रतिष्ठान चलाने के लिए विपुल मात्रा में धन चाहिए। वह संचय करने से इकट्ठा होता है। अपरिग्रह का अर्थ संग्रह मात्र का त्याग मान लें, तो न संपदा संचित होगी और न ही वैभव-विकास का प्रयोजन सिद्ध होगा।

श्री अरविंद ने लिखा है कि अध्यात्म दर्शन में धन संपदा को गर्हित, त्याज्य और निंदित मानने की एक गलत प्रवृत्ति चल पड़ी। इससे हमने समृद्धि पर ध्यान देना बंद कर दिया। प्राचीन दर्शन में ऐसा नहीं था। धन की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी की निंदा कर प्रसन्न और सुखी नहीं रहा जा सकता।

सत्य प्रधान लोगों ने, साधकों और अध्यात्म रुचि रखने वाली प्रतिभाओं ने धन की निंदा कर लक्ष्मी का अपमान किया। परिणाम यह हुआ कि जगत् का पालन-पोषण करने वाली देवसत्ता विष्णु की शक्ति लक्ष्मी का कृपाप्रसाद असुरों के हाथ में चला गया। (Ashtanga Yoga)

असुरों ने उसका उद्धत उपभोग किया और उनके कारण जगत् में त्रास ही फैला। आज यदि धन उद्धत प्रदर्शन और दूसरों के उत्पीड़न का कारण बना हुआ है, तो वह सत्पुरुषों के पाप का ही परिणाम है। उस पाप का जिसने संपदा को निंदित और त्याज्य बताया गया। (Ashtanga Yoga)

क्या किया जाए? श्री अरविंद का उत्तर है कि धन को आसुरी प्रभाव से मुक्त करो। सत्पुरुष और देववृत्ति के लोग उद्यमी बनें, संपदा कमाएँ और अपने उपार्जन को दैवी प्रयोजनों में लगाएँ। दैवी प्रयोजन अर्थात् समाज को सुखी-समुन्नत और सुसंस्कृत बनाने वाले क्रिया-कलाप। नीति की कमाई दैवी कार्यों में लगेगी, तो सत्परिणाम आएँगे ही। (Ashtanga Yoga)

मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण की संभावनाएँ भी उसी उपार्जन से साकार हो सकेंगी, अन्यथा महाभारत में अश्वमेध यज्ञ के बाद उस स्थान की धूलि में लौटने और निराश हो जाने वाले नेवले की तरह दैवी प्रवृत्तियों को भी निराश होना पड़ेगा।

संग्रह नहीं करने, धन-संपत्ति में ममत्व बुद्धि त्यागने, लोभ-लालच से बचने और सब कुछ भगवान् का समझने वाली आस्था लक्ष्य है। वह संपूर्ण त्याग और स्पृहा का निताँत अभाव बताते रहने से विकसित नहीं होती, पर नियमों को साधना के रूप में अपनाना है, तो एक प्रस्थान बिंदु नियत करना पड़ेगा। अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि व्रतों की तरह अपरिग्रह का अभ्यास भी एक छोटे-से नियम से शुरू किया जा सकता है। (Ashtanga Yoga)

नियम यह है कि प्रतिदिन कुछ-न-कुछ दान करते रहा जाए। विद्या-विभूति से सेवा करने, दूसरों के कष्ट दूर करने में अपनी प्रतिभा का अंश लगाने या कर्त्तव्य में उत्कृष्ट भाव का समावेश करने के अभ्यास आगे के हैं। अपरिग्रह का आदर्श धन-संपत्ति के मोह से मुक्त होने के लिए निश्चित किया गया है, तो दान का आरंभ भी धन से ही करना चाहिए। (Ashtanga Yoga)

भिक्षावृत्ति इन दिनों व्यवसाय का रूप ले चुकी है। फिर भी कुछ परिवारों या मनस्वियों ने नियम बना रखा है कि याचक जब भी आएगा, उसे मना नहीं करेंगे। इस व्रत का दूसरे लोग दुरुपयोग ही करते हैं, लेकिन जिसने व्रत धारण किया है, वह देते रहने के सुख को जानता है। धन संसार में सबसे प्रिय वस्तु है। लोग इसके लिए पद, प्रभाव और परिवार का भी त्याग कर देते हैं। (Ashtanga Yoga)

जल्दी धनवान बनने के लिए पद-प्रतिष्ठा को दाँव पर लगाकर अनुचित साधन अपनाए जाते हैं, तो वह एक किस्म का त्याग ही है। भगवद्गीता की परिभाषा में इसे तामसी त्याग कहा गया है, लेकिन है तो वह त्याग ही। धन के लिए अपने संबंध, स्वास्थ्य और परिवार को भी दाँव पर लगा देने की प्रवृत्ति खुलेआम देखी जाती है। इसका अर्थ है कि धन हमेशा से और अब भी सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है।

कंजूसी, छीन-झपट, बेईमानी, चोरी और भ्रष्टाचार जैसे मानसिक-सामाजिक अपराध भी धन की लालसा में ही किए जाते हैं। उस धन का एक अंश अहैतुक भाव से याचक को दिया जाता है, तो उसे अपरिग्रह की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम समझना चाहिए। (Ashtanga Yoga)

लोकमंगल के लिए अपनी आय का एक अंश लगाना दान का अगला चरण है, लेकिन जरूरतमंद लोगों को सीधे सहायता करना और इस नियम से पीछे नहीं हटने की निष्ठा फिर भी बनी रहनी चाहिए। उसमें कोई रुकावट नहीं आए।

याचना करने वाले किसी भी व्यक्ति को खाली हाथ नहीं जाने देने का नियम इस व्रत की पराकाष्ठा है। उस स्थिति तक क्रमशः ही पहुँचा जा सकता है। नहीं पहुँच पाए, तो भी कोई बात नहीं, प्रतिदिन कुछ-न-कुछ दान करने का नियम भी पर्याप्त है। देते समय पाने वाले की पात्रता और आवश्यकता का विचार किया जा सकता है। कुपात्र को नहीं दिया जाए, क्योंकि उससे दिए गए अंश के दुरुपयोग और प्रकाराँतर से आसुरी शक्तियों को ही पुष्टि मिलती है। (Ashtanga Yoga)

जरूरी नहीं कि सत्पात्र और जरूरतमंद व्यक्ति हर दिन मिल ही जाएँ। जिस दिन नहीं मिलें, उस दिन का अंश सुरक्षित रखा जाए और अगले दिनों उसका उपयोग कर लिया जाए। पूछा जा सकता है कि इस एक साधारण नियम से अपरिग्रह का आदर्श कैसे प्राप्त किया जाए। (Ashtanga Yoga)

योगदर्शन में इस नियम की सिद्धि-परिणति समस्त वैभव को प्रकट होने के रूप बताई गई है। महर्षि पतंजलि ने कहा कि परिपूर्ण अवस्था में साधक के सामने समस्त संपदाएँ प्रकट होने लगती हैं। प्रश्न किया जा सकता है कि एक साधारण नियम से यह चमत्कार कैसे संभव है। उसी का उत्तर पतंजलि ने यह कहते हुए दिया है कि सिद्धियों के प्रलोभन में व्रत-नियमों का पालन नहीं किया जाए, न ही उनके प्राप्त होने पर ठहर जाया जाए। (Ashtanga Yoga)

स्वामी शिवानंद ने लिखा है कि सिद्धियाँ साधक के विकास में बाधा पहुँचाती हैं। उनके प्रति ललक नहीं रखें। वे मिलें तो भी मुँह फेर लें। जहाँ तक छोटी-सी शुरुआत के बड़े परिणाम मिलने का प्रश्न है, उस संबंध में सचाई यही है कि वे निश्चित ही प्राप्त होते हैं।

लक्ष्य कितना ही बड़ा और दूर तक हो, उस तक पहुँचने के लिए आरंभ दो छोटे-से कदम बढ़ाते हुए किया जाता है। अपरिग्रह यदि कोई बहुत बड़ा आदर्श है, तो उस दिशा में पहला कदम प्रतिदिन कुछ-न-कुछ दान करना है। (Ashtanga Yoga)

दूसरा कदम? यह कदम अपने आसपास के लोगों की सराहना के रूप में है। नियम बना लिया जाए कि जहाँ तक होगा, दूसरों की प्रशंसा करेंगे। मनुष्य गुण-दोषों के मिश्रण से मिलकर बना है। अगर किसी पर ध्यान देने की जरूरत हो तो गुणों पर ही केंद्रित किया जाए। (Ashtanga Yoga)

उन्हीं की सराहना करें। इसका अर्थ यह नहीं है कि दोषों का समर्थन करें, उन्हें भी गुण मानकर सराहें। अपितु व्यावहारिक पक्ष यही है कि दोषों को अनदेखा करें। ध्यान में रखें, सावधानी भी बरतें, उनके प्रभाव से अपना बचाव करें, सिर्फ व्यवहार में उन्हें रेखाँकित नहीं करें। उपेक्षा कर दें। (Ashtanga Yoga)

जिन गुणों की सराहना की जाती है, व्यक्ति उनके विकास के लिए प्रेरित होता है। जिसकी उपेक्षा की जाती है, व्यक्ति स्वयं भी उसे निरर्थक मानकर उनसे छूटने लगता है। कम-से-कम उनके प्रति आकृष्ट होना छोड़ देता है।

प्रशंसा से दूसरों में सद्गुणों का विकास उत्कृष्टता के संवर्द्धन की, लोकमंगल साधना का ही हिस्सा है। दोहरा लाभ यह है कि प्रशंसा द्वारा हम अपने आप में भी इन गुणों का विकास करने लगते हैं। दूसरों के प्रति स्नेह-सद्भाव से भर उठते हैं। कम-से-कम परनिंदा और उसके कारण उत्पन्न होने वाले कलुष से तो बच ही जाते हैं। अपरिग्रह के शुद्ध अर्थों में यह नियम सद्गुणों का प्रवाह अविरल करने में सहायक है।

कहा गया है कि परिग्रह पाप नहीं है। आध्यात्मिक अपराध उसमें ममत्व बुद्धि धन-संपदा में ही नहीं, व्यक्तियों, वस्तुओं और विचारों में भी होती है।

जिस वस्तु, व्यक्ति या विचार से मोह-ममता का संबंध जोड़ लिया जाता है, व्यक्ति धीरे-धीरे अपना आपा खोकर उसी के अनुरूप होने लगता है। कीट भृंगी, भौंरा पतंगा बनने लगता है और अपना स्वरूप खो बैठता है। मनुष्य का अपना स्वरूप जड़ या स्थावर नहीं है। वह चेतन है।

जड़ पदार्थों से मोह-ममता जोड़ लेने के बाद आँतरिक स्थिति भी बदलने लगती है। धन-संपत्ति या अन्य वस्तुओं के प्रति मोहाविष्ट जनों में जीवन के दूसरे पक्ष गौण होने लगते हैं। उसके विकास की संभावनाएँ घटने-सिमटने लगती हैं। उदाहरण के लिए, पदलोलुप व्यक्तियों के मन में असुरक्षा, आशंका और आक्रामकता आ जाती है। (Ashtanga Yoga)

उसमें विश्वास और सहिष्णुता का अभाव हो जाता है। धन के प्रति ममत्व बुद्धि रखने वालों का नैतिक, चारित्रिक विकास रुक जाता है।

कृपण व्यक्तियों के लिए, मित्र-परिचितों और शुभचिंतकों की संख्या दिनोंदिन घटती जाती है। देखा तो यह भी गया है कि बेहद कंजूस लोगों के घर में संतानें नहीं होतीं। होती भी हैं तो उनकी योग्यता का विकास नहीं होता, क्योंकि उसकी आत्मा संचय और सुरक्षा की चिंता करते-करते कुँठित हो जाती है। दान, उदारता, सहिष्णुता और सराहना के भाव व्यक्ति की आत्मचेतना को विराट् बनाते हैं। फिर ईश्वर की यह समूची सृष्टि ही उसका आँगन और वैभव बन जाती है। (Ashtanga Yoga)

आर्जव

मन, वाणी और शरीर की क्रियाओंसे, सज्जन-दुर्जन, अपना-पराया व्यक्ति के साथ व्यवहार या व्यवहार करने में आसानी ओर सच्चाई,

प्राचीन हिन्दू और जैन ग्रन्थों में इसका वर्णन मिलता है। इसका शाब्दिक अर्थ इमानदारी, सीधापन, और कथनी-और करनी में एकरूपता से है। (Ashtanga Yoga)

क्षमा

क्षमा का अर्थ है किसी के द्वारा किये गये अपराध या गलती पर स्वेच्छा से उसके प्रति भेदभाव और क्रोध को समाप्त कर देना।

प्रिय, अप्रिय यातना और समानता में सहिष्णुता। (Ashtanga Yoga)

धृति

अर्थात धीरज, धैर्य। योगाभ्यास नियमित रूप से, दीर्घकाल तक व धैर्य के साथ करते रहने से ही हमें इसमें सफलता मिलती हैं। अतः मन, वचन व कर्म से धैर्य रखने के लिये श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है।

धनकी हानि, इष्ट, भाई, स्नेही, आदीका योग के साथ-साथ अन्य आघात से पीड़ित होने की वृति. (Ashtanga Yoga)

मिताहार

(मिताहार  = मित + आहार ; अर्थात, कम खाना)

पाचन शक्ति वाले स्वस्थ व्यक्तिको एक १/३ भागना भोजन करना साहिये वोभी आसानीसे पासन होने वाला भोजन होना साहिये । भोजन सादु ओर स्वछ होना साहिये । कुछ योगीयोने ने मितहार को एक प्रमुख माना है। (Ashtanga Yoga)

भोजन की मात्रा से सम्बन्धित योग की एक संकल्पना है। मिताहार की चर्चा ३० से अधिक ग्रन्थों में हुई है, जैसे शाण्डिल्य उपनिषद, गीता, दशकुमारचरित तथा हठयोग प्रदीपिका आदि।

हठयोगप्रदीपिका (१.५७) में कहा गया है-

ब्रह्मचारी मिताहारी त्यागी योगपरायणः ।

अब्दादूर्ध्वं भवेद्सिद्धो नात्र कार्या विछारणा ॥

अष्टांग योग (Ashtanga Yoga) का दूसरा अंग — नियम

यम नियम में अन्तर

यम (yamas) का संबंध मुख्य रूप से अन्यों के साथ है और नियम का संबंध मुख्य रूप से व्यक्तिक जीवन के साथ है। विशेष रूप से स्वयं के दु:खों से छुड़ाने वाला होने से इसे नियम कहते हैं। (Ashtanga Yoga)

नियम के पाँच विभाग हैं :-

शौच

शौच के दो प्रकर है ।

बाहरी शौच

बाहरी शौच :- माटी, पाणी, आदीसे शरीरको साफ रखना वो बाहरी सौच है ।

आंतरिक शौच

आंतरिक शौच :- आत्मविधा का अभ्यास अथवा ईश्वर पुजन, जप, प्राणायाम आदी से आंतरिक शुध्दि करना वो आंतरिक शौच

शरीर व मन की शुद्धि को शौच कहा जाता है। स्नान, वस्त्र, खान-पान आदि से शरीर को स्वच्छ रखा जाता है। विद्या , ज्ञान, सत्संग, संयम, धर्म आदि और धनोपार्जन को पवित्र रखने के उपायों से मन की शुद्धि होती है। मन की शुद्धि शरीर की शुद्धि से अधिक महत्त्वपूर्ण है परन्तु मानव जीवन के अधिक साधन-समय, धन आदि शरीर की शुद्धि  में ही लगाए जा रहें हैं। (Ashtanga Yoga)

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु व आकाश की शुद्धि से मनुष्य की शुद्धि और इनकी अशुद्धि से मनुष्य की अशुद्धि होती है। सभी शुद्धियों में धन की शुद्धि बड़ी मानी गर्इ है। इसलिए यहीं से शुद्धि का प्रारम्भ करना चाहिए। जिस मनुष्य का धन अशुद्ध है उसका आहार, ज्ञान व कर्म भी अशुद्ध ही होगा। उसके जीवन में तपस्या नहीं होगी व उसे समय की महत्ता का बोध नहीं होगा।

व आन्तरिक शुद्धि का पालन करने से अहिंसा बलवान बनती है, जिससे शुद्धि का पालन करने वाले व्यक्ति के साथ उठने-बैठने व अन्य प्रकार के व्यवहारों में सबको प्रसन्नता मिलती है। (Ashtanga Yoga)

संतोष

अपनी योग्यता व अधिकार के अनुरूप अपनी शक्ति, सामर्थ्य , ज्ञान-विज्ञान तथा उपलब्ध साधनों द्वारा पूर्ण पुरूषार्थ करने से प्राप्त फल में प्रसन्न रहने को संतोष कहते हैं। असंतोष का मूल लोभ है। यदि व्यक्ति संतोष का पालन करता है यानि अपनी तृष्णा को, लोभ को समाप्त कर देता है तो जो सुख मिलता है उसके सामने संसार का सारा का सारा सुख सोलहवां भाग भी नहीं होता।

जितना पास है या किसी परिस्थिति से जितना मिलता है उससे अधिक की इच्छा न करना संतोष नहीं। अपने द्वारा निर्धारित फल को प्राप्त न करने पर हताश-निराश न होकर, हाय-हाय न कहते हुए अपनी योग्यता, सामर्थ्य, बल, ज्ञान-विज्ञान व साधनों को और अधिक बढ़ाकर और अधिक पुरूषार्थ करके अधिक फल को प्राप्त करने की चेष्टा सतत् करनी चाहिए। (Ashtanga Yoga)

अनेक बार व्यक्ति अपने सामर्थ्य व योग्यताओं को न पहचानते हुए कम पुरूषार्थ करके संतोष कर लेता है, जो आत्म दर्शन में अत्यन्त बाधक है।

संतोष के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि व्यक्ति ईश्वर के न्याय पर पूर्ण विश्वास करे। उसे यह निश्चिंतता होनी चाहिए कि उसके कर्मों का न न्यून न अधिक फल मिलता रहा है और मिलता रहेगा। (Ashtanga Yoga)

तप

जीवन के लक्ष्य को पूरा करने के लिए हानि-लाभ, सुख-दु:ख, भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, मान-अपमान आदि द्वन्द्वों को शान्ति व धैर्य से सहन करने को तप कहते हैं।

आज हम स्वयं को इतना कमजोर कर चुके हैं कि बिना तकिये, बिस्तर, वाहन (कार आदि), पंखा, कूलर, ए.सी. कमरा आदि के नहीं रह पाते हैं। अनेक बार हम कुछ भौतिक पदार्थों के लिए आत्म-तत्व को ही छोड़ देते हैं। जैसे ही विषय हमारे सामने उपस्थित होता है, हम चाहते हुए या न चाहते हुए सब कुछ भूलकर के उसके साथ जुड़ जाते हैं।, उसी में लग जाते हैं, छोड़ नहीं पाते, त्याग नहीं कर पाते। जब कोर्इ मनोरम दृष्य सामने आता है तो उसको देखे बिना रह नहीं पाते, उसका त्याग नहीं कर पाते।


अतपस्वी व्यक्ति को योग की सिद्धि नहीं होती अर्थात वह ईश्वर का दर्शन नहीं कर सकता। इतना त्याग न करें कि अपका उद्देश्य धरा का धरा रह जाय, इतनी तपस्या न करें कि तपस्या से उद्देश्य ही धूमिल हो जाय। तपस्या करो लेकिन चित्त की प्रसन्नता बनी रहे। (Ashtanga Yoga)

स्वाध्याय

भौतिक-विद्या व आध्यात्मिक-विद्या दोनों का अध्ययन करना स्वाध्याय कहलाता है। केवल भौतिक या केवल आध्यात्मिक विद्या से कोर्इ भी अपने लक्ष्य को पूरा नहीं कर सकता है। अत: दोनों का समन्वय होना अति आवश्यक है।

वेदों में दोनों भौतिक विधा व अध्यात्मिक विद्या है। विद्वान लोग वेदों के अध्ययन को ही स्वाध्याय मानते हैं। कुछ विद्वान लोग ऋषि कृत ग्रन्थों (व्याकरण, निरुक्त आदि, दर्शन शास्त्र, ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिष्द आदि) के अध्ययन को भी स्वाध्याय के अन्तर्गत लेते हैं। स्वाध्याय का पालन करने से मूर्खतारूपी अविधा से युक्त होकर की जाने वाली हिंसा का अन्त होता है और हमें मुक्ति-पथ पर आगे बढ़ने में सहायता मिलती है।

ईश्वर-प्रणिधान

ईश्वर-प्रणिधान का अर्थ है — समर्पण करना।

लोक में हम माता — पिता, अध्यापक, अधिकारी आदि के प्रति समर्पण की भावना की बात करते हैं। इसका अर्थ यहीं लिया जाता है कि जैसा माता-पिता, अध्यापक, अधिकारी आदि कहें वैसा ही करना। जिसके प्रति आप समर्पित हो रहें है। उसकी आज्ञा का पालन करना ही समर्पण हैं। इसलिए ईश्वर प्रणिधान के लिए यह आवश्यक है कि हम ईश्वरीय आज्ञायों के बारे में जानें। (Ashtanga Yoga)

ईश्वर की आज्ञा के अनुसार चलना होगा तो हम हर वक्त ईश्वर को सामने रखेंगे और अपनी वाणी, सोच व कर्मों को अच्छी ओर लगाएंगे। परन्तु ईश्वरिय आज्ञाओं का पालन करने में उनसे मिलने वाले फल की इच्छा नही करनी चाहिए। फल को न चाहने का अर्थ क्या है ? जो कुछ भी कार्य करने पर मिलता है-जड़ पदार्थ-उसको ही अंतिम फल समझ कर कार्य करें, तो उससे आत्मा को पूर्ण तृप्ति नहीं मिलती। फल ऐसा चाहो जिससे आत्मा की अभिलाषा की पूर्ति हो सके।

उसकी पूर्ति होती है ईश्वरिय आनन्द को पाने से। कर्मों को जड़ पदार्थों को प्राप्त करने की इच्छा से न करके ईश्वरीय आनन्द को प्राप्त करने के लिए करना चाहिए। श्रीमदभगवद् गीता में वर्णित निष्काम भाव से कर्म करने का भी यहीं अभिप्राय है। (Ashtanga Yoga)

इस बात को समझाने के लिए ऋषियों ने ‘भक्ति-विशेष’ शब्द का प्रयोग किया है।

भक्ति=समर्पण=आज्ञा पालन :- ईश्वर-प्रणिधान के अन्तर्गत अपना सब कुछ-बल, धन, योग्यता, ज्ञान आदि ईश्वर को समर्पित कर दें। व्यक्ति जब ऐसा करने लगता है तो उसको डर लगता है । यदि मैं सब कुछ समर्पित कर दूँ, तो मेरे लिए कुछ बचेगा ही नहीं। ईश्वर-प्रणिधान करने पर भी समस्त धन रहेगा तो आपके पास ही, लेकिन उसे ईश्वर की आज्ञा के अनुरूप प्रयोग करना होगा। (Ashtanga Yoga)

जैसे उदाहरण के लिए एक मकान में एक किराएदार रहता है। वह किराएदार उस मकान का अधिक से अधिक प्रयोग करता है और उसका अधिक से अधिक सुख लेने का प्रयत्न करता है, लेकिन अपना नहीं मानता। मकान उसी के पास है, वह ही प्रयोग करता है परन्तु उसे अपना नहीं मानता, उसके बारे में उसको कोई चिन्ता नहीं रहती। किसी कारण से बिगड़ भी जाए तो उसको दु:ख बिलकुल भी नहीं होता। क्योंकि उसने उसे अपना तो कुछ माना ही नहीं था।

अपने जीवन में यह भाव लाने से कि मेरा सब कुछ प्रभु का है एक बहुत बड़ा लाभ होगा कि वो जैसा हमको कहेगा हम वैसा अपने साधनों का प्रयोग करेंगे। जिम्मेदारी अपनी नहीं रहेगी।

दान देना पड़ेगा क्योंकि उसकी आज्ञा है। जितना खाने के लिए कहता है उतना खाओ, जिसे न खाने के लिए कहता है उसे मत खाओ। समर्पण का अर्थ हमने किया ‘भक्ति-विशेष’ अर्थात ईश्वर की आज्ञा-पालन।

जब हम ईश्वर — समर्पण करेंगे अथवा उसकी आज्ञा पालन करने में तत्पर रहेंगे तो मुक्ति-पथ पर हमारी प्रगति बड़ी तेज़ होगी।

अष्टांग योग (Ashtanga Yoga)का तीसरा अंग — आसन

आज आसन को योग का पर्याय और आसन का मुख्य उद्देश्य शरीर को रोग मुक्त करना माना जाने लगा है। आसन करने पर गौण रूप से शारीरिक लाभ भी होते हैं। परन्तु आसन का मुख्य उद्देश्य प्राणायाम, धारणा, ध्यान और समाधि हैं। (Ashtanga Yoga)

जिस शारीरिक मुद्रा में स्थिरता के साथ लम्बे समय तक सुख पूर्वक बैठा जा सके उसे आसन कहा गया है। शरीर की स्थिति, अवस्था व साम्थर्य को ध्यान में रखते हुए भिन्न-भिन्न आसनों की चर्चा की जई है। चलते-फिरते, उछलते — कूदते, नाचते-गाते हुए ध्यान नहीं हो सकता।

ध्यान के लिए बैठना आवश्यक है। मन को अगतिशिल ईश्वर में लगाना तभी सम्भव है जब हम अपने शरीर को स्थिर अथवा अचल करें। अचलता से ही पूर्ण एकाग्रता मिलती है। उछलते, कूदते-नाचते हुए मन को पूरा रोकना, पूर्ण एकाग्र करना सम्भव ही नहीं है। (Ashtanga Yoga)

योगी खाते-पीते, उठते-बैठते, चलते-फिरते, लेटे हुए, बात करते, किसी भी कार्य को करते हुए सतत् ईश्वर की अनुभूति बनाए रखते हैं। ईश्वर की उपस्थिति में ही समस्त कार्यों को करते हैं। किन्तु इसे ईश्वर-प्रणिधान कहते हैं, यह समाधि नहीं है। (Ashtanga Yoga)

समाधि व ईश्वर-प्रणिधान अलग-अलग हैं, कोई यह न समझे कि योगी चलते-फिरते समाधि लगा लेता है। समाधि के लिए तो योगियों को भी समस्त वृत्तियों को रोककर मन को पूर्ण रूप से ईश्वर में लगाना होता है, जिससे समाधि लग सके और इसके लिए शरीर की स्थिरता आवश्यक है।

योग का चौथा अंग — प्राणायाम

प्राणायाम से ज्ञान का आवरण जो अज्ञान है, नष्ट होता है। ज्ञान के उत्कृष्टतम स्तर से वैराग्य उपजता है। कपाल-भाति, अनुलोम-विलोम आदि प्राणायाम नहीं बल्कि श्वसन क्रियाएं हैं। ये क्रियाएं हमें अनेको रोगों से बचा सकने में सक्ष्म है

परन्तु इन्हें अपने आहार-विहार को सूक्ष्मता से जानने-समझने व जटिल रोगों में आयुर्वेद की सहायता लेने का विकल्प समझना हमारी भूल होगी। प्राणायाम सबके लिए महत्त्वपूर्ण व आवश्यक क्रिया है।

प्राणायाम में प्राणों को रोका जाता है प्राणायाम चार ही है जो पतंजलि ऋषि में अपनी अमर कृति योग दर्शन में बताए हैं। (Ashtanga Yoga)

पहला — फेफड़ों में स्थित प्राण को बाहर निकाल कर बाहर ही यथा साम्थर्य रोकना और घबराहट होने पर बाहर के प्राण (वायु) को अन्दर ले लेना।

दूसरा — बाहर के प्राण को अन्दर (फेफड़ों में) लेकर अन्दर ही रोके रखना और घबराहट होने पर रोके हुए प्राण (वायु) को बाहर निकाल देना।

तीसरा — प्राण को जहां का तहां (अन्दर का अन्दर व बाहर का बाहर) रोक देना। और घबराहट होने पर प्राणों को सामान्य चलने देना।

चौथा — यह प्राणायाम पहले व दूसरे प्राणायाम को जोड़ करके किया जाता है। पहले तीनों प्राणायामों में वर्षों के अभ्यास के पश्चात कुशलता प्राप्त करके ही इस प्राणायाम को किया जाता है।

प्राणों को अधिक देर तक रोकने में शक्ति न लगाकर विधि में शक्ति लगायें और कुशलता के प्रति ध्यान दें। प्राणायाम की विधि को अच्छे प्रशिक्षक से सीखना चाहिए। ज्ञान तो सारा पुस्तकादि साधनों में भरा पड़ा है, किन्तु उसे व्यवस्थित करके हमारे मस्तिष्क में तो अध्यापक ही बिठा सकता है।

प्राणायाम(Pranayama) हमारे शरीर के सभी तंत्रों को तो व्यवस्थित रखता ही है इससे हमारी बुद्धि भी अति सूक्ष्म होकर मुश्किल विषयों को भी शीघ्रता से ग्रहण करने में सक्षम हो जाती है। प्राणायाम हमारे शारीरिक और बौधिक विकास के साथ-साथ हमारी अध्यात्मिक उन्नति में भी अत्यन्त सहायक है। (Ashtanga Yoga)

प्राणायाम Pranayama द्वारा हमारे श्वसन तंत्र की कार्य क्षमता बढ़ती है। यदि मात्र प्राणायाम काल को दृष्टि गत रखें तो उस समय अधिक प्राण का ग्रहण नहीं होता। प्राणायाम के समय तो श्वास-प्रश्वास को रोक दिया जाता है, फलत: वायु की पूर्ति कम होती है, किन्तु प्राणायाम से फेफड़ों में वह क्षमता उत्पन्न होती है कि व्यक्ति सम्पूर्ण दिन में अच्छी तरह श्वास-प्रश्वास कर पाता है।

प्राणायाम- को प्रतिदिन प्रयाप्त समय देना चाहिए। कुछ विद्वान मानते हैं कि हमें एक दिन में इक्कीस प्राणायाम से अधिक नहीं करने चाहिए। परन्तु अन्य ऐसी बातों को अनावश्यक मानते हैं। प्राणायाम करते समय प्रभु से प्रार्थना करें कि हे प्राण प्रदाता! मेरे प्राण मेरे अधिकार में हो। प्राण के अनुसार चलने वाला मेरा मन मेरे अधिकार में हो। (Ashtanga Yoga)

प्राणायाम करते समय मन को खाली न रखें। प्राणायाम के काल मे निरन्तर मन्त्र ओम् भू: (ईश्वर प्राणाधार है), ओम् भूव: (ईश्वर दूखों को हरने वाला है), ओम् स्व: (ईश्वर सुख देने वाला है) ओ३म् मह: (ईश्वर महान है), ओम् जन: (ईश्वर सृष्टि कर्ता है व जीवों को उनके कर्मों के अनुसार उचित शरीरों के साथ संयोग करता है।), (ईश्वर दुष्टों को दुख देने वाला है), ओम् सत्यम (ईश्वर अविनाषी सत्य है) का अर्थ सहित जप करें।

प्राणायाम का मुख्य उद्देश्य मन को रोककर आत्मा व परमात्मा में लगना एवं उनका साक्षात्कार करना है, ऐसा मन में रखकर प्राणायाम करें।

प्राणों को रोकने के अपने सामर्थ्य को धीरे-धीरे धैर्य पूर्वक बढ़ाना चाहिए। बहुत लोग बहुत-बहुत देर तक सांस रोके रखते हैं, सरिया आदि मोड़ते हैं, किन्तु ऐसा नहीं कि उन सबका अज्ञान नष्ट होकर उन्हें विवेक-वैराग्य हो जाता हो। यदि प्राण को या सांस को तो रोक दिया परन्तु मन पर ध्यान नहीं दिया तो अज्ञान इस प्रकार नष्ट नहीं होता। (Ashtanga Yoga)

प्राणों के स्थिर होते ही मन स्थिर हो जाता है। स्थिर हुए मन को कहां लगायें ? पैसे में मन को लगायें तो पैसा मिलता है। परमात्मा में लगाने से र्इश्वर साक्षात्कार हो जाता है।

हम प्रतिदिन न जाने कितनी बार अपने प्राणों को वश में रखते हैं। इसके साथ ही मन भी उतनी ही बार वश में होता रहता है इस स्थिर हुए मन को हम संसार में लगाकर संसारिक सुखों को प्राप्त करते हैं।

जो यह कहता है कि मन वश में नहीं आता तो इसका अर्थ यह है कि आत्मा या परमात्मा में उसकी रूचि या श्रद्धा नहीं है। टी.वी. का मनपसन्द सीरियल हम एक-दो घण्टे तक मनोयोग पूर्वक कैसे देख पाते हैं यदि मन हमारे वश में न होता ! इसका सीधा सा अर्थ है कि हमारा मन पर नियन्त्रण का अभ्यास तो परिपक्व है किन्तु यह केवल सांसारिक विषयों में ही है। अत: हमें मनोनियन्त्रण की शक्ति को केवल परिवर्तित विषय पर लगाने की आवश्यकता है अर्थात इसका केन्द्र आत्मा और परमात्मा को ही बनाना है।

महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि जैसे धार्मिक न्यायाधीश प्रजा की रक्षा करता है, वैसे ही प्राणायामादि से अच्छे प्रकार सिद्ध किये हुए प्राण योगी की सब दु:खों से रक्षा करते हैं। (Ashtanga Yoga)

अष्टांग योग (Ashtanga Yoga) का पांचवा अंग — प्रत्याहार

आंख, कान, नासिका आदि दसों इन्द्रियों को ससांर के विषयों से हटाकर मन के साथ-साथ रोक (बांध) देने को प्रत्याहार कहते हैं। (Ashtanga Yoga)

प्रत्याहार का मोटा स्वरूप है संयम रखना, इन्द्रियों पर संयम रखना। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति मीठा बहुत खाता है कुछ समय बाद वह अपनी मीठा खाने की आदत में तो संयम ले आता है परन्तु अब उसकी प्रवृति नमकीन खाने में हो जाती है। (Ashtanga Yoga)

यह कहा जा सकता है कि वह पहले भी और अब भी अपनी रसना इन्द्रिय पर संयम रख पाने में असफल रहा। उसने मधुर रस को काबू करने का प्रयत्न किया तो उसकी इन्द्रिय दूसरे रस में लग गई। (Ashtanga Yoga)

इसी भांति अगर कोर्इ व्यक्ति अपनी एक इन्द्रिय को संयमित कर लेता है तो वह अन्य इन्द्रिय के विषय (देखना, सुनना, सूंघना, स्वाद लेना, स्पर्ष करना आदि) में और अधिक आनन्द लेने लगता है। अगर एक इन्द्रिय को रोकने में ही बड़ी कठिनाई है तो पाँचों ज्ञानोन्द्रियों को रोकना तो बहुत कठिन हो जायेगा।

इन्द्रियों को रोकना हो तो अन्दर भूख उत्पन्न करनी होगी। इनको जीतना हो तो तपस्या करनी पड़ती है और तपस्या के पीछे त्याग की भावना लानी पड़ती है। वैसे हम तपस्या बहुत करते हैं। दुनिया में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो तपस्या करता ही न हो।

पैसे की भूख है तो हम पता नहीं कहाँ-कहाँ जाते हैं। कहाँ-कहाँ से लाते हैं। क्या-क्या करते हैं। सुबह से लेकर रात्रि में सोने तक और जब होश में हैं तब से आज तक हम उसी के लिए लगे हैं। र्इश्वर को प्राप्त करने की ऐसी भूख नहीं है। जब ईश्वर को प्राप्त करने के लिए भूख नहीं है तो इन्द्रियों के ऊपर संयम नहीं कर पायेंगे हम। (Ashtanga Yoga)

कोई चेतन अन्य चेतन को नचा दे तो समझ में आता है, (जैसे मदारी, भालू, बन्दर आदि को नचाता है), लेकिन कोर्इ जड़ किसी चेतन को नचा दे, समझना बड़ा कठिन है। लेकिन हो यही रहा है। हम अपने जड़ मन को अपने अधिकार में नहीं रख पा रहे हैं। बल्कि यह जड़ मन हमें नचा रहा है।


कैसे अपनी इन्द्रियों को वश में रखना, इस बात को प्रत्याहार में समझाया है। एक को रोकते हैं तो दूसरी इन्द्रिय तेज हो जाती है। दूसरी को रोकें तो तीसरी, तीसरी को रोकें तो चौथी, तो पाँचों ज्ञानेनिद्रयों को कैसे रोकें ? इसके लिए एक बहुत अच्छा उदाहरण देकर हमें समझाया जाता है जैसे जब रानी मक्खी कहीं जाकर बैठ जाती है तो उसके इर्द-गिर्द सारी मक्खियाँ बैठ जाती हैं। (Ashtanga Yoga)

उसी प्रकार से हमारे शरीर के अन्दर मन है। वह रानी मक्खी है और बाकी इन्द्रियाँ बाकी मक्खियाँ हैं। संसार में से उस रानी मक्खी को हटाकर भगवान में बिठा दो। फिर यह अनियंत्रित देखना, सूंघना व छूना आदि सब बन्द हो जायेंगे। प्रत्याहार की सिद्धि के बिना हम अपने मन को पूर्णत्या परमात्मा में नहीं लगा सकते। (Ashtanga Yoga)

अष्टांग योग (Ashtanga Yoga) का छठा अंग — धारणा

अपने मन को अपनी इच्छा से अपने ही शरीर के अन्दर किसी एक स्थान में बांधने, रोकने या टिका देने को धारणा कहते हैं। (Ashtanga Yoga)

वैसे तो शरीर में मन को टिकाने के मुख्य स्थान मस्तक, भ्रूमध्य, नाक का अग्रभाग, जिह्वा का अग्रभाग, कण्ठ, हृदय, नाभि आदि हैं परन्तु इनमें से सर्वोत्तम स्थान हृदय प्रदेश को माना गया है।

हृदय प्रदेश का अभिप्राय शरीर के हृदय नामक अंग के स्थान से न हो कर छाती के बीचों बीच जो गड्डा होता है उससे है। (Ashtanga Yoga)

जहां धारणा की जाती है वहीं ध्यान करने का विधान है। ध्यान के बाद समाधि के माध्यम से आत्मा प्रभु का दर्शन करता है और दर्शन वहीं हो सकता है जहां आत्मा और प्रभु दोनों उपस्थित हों।

प्रभु तो शरीर के अन्दर भी है और बाहर भी परन्तु आत्मा केवल शरीर के अन्दर ही विद्यमान हैं। इसलिए शरीर से बाहर धारणा नहीं करनी चाहिए।

निम्नलिखित कारणों से प्राय: हम मन को लम्बे समय तक एक स्थान पर नहीं टिका पाते –

. मन जड़ है को भूले रहना।।
. भोजन में सात्विकता की कमी।।
. संसारिक पदार्थों व संसारिक-संबंन्धों में मोह रहना।।
. ईश्वर कण — कण में व्याप्त है को भूले रहना
. बार-बार मन को टिकाकर रखने का संकल्प नहीं करना।।
. मन के शान्त भाव को भुलाकर उसे चंचल मानना।।

बहुत से योग साधक बिना धारणा बनाए ध्यान करते रहते हैं। जिससे मन की स्थिरता नहीं बन पाने से भी भटकाव अधिक होने लगता है। (Ashtanga Yoga)

जितनी मात्रा में हमने योग के पहले पांच अंगो को सिद्ध किया होता है। उसी अनुपात में हमें धारणा में सफलता मिलती है। धारणा के महत्त्व व आवश्यकता को निम्नलिखित उदाहरण से समझाया जा सकता है।

जिस तरह किसी लक्ष्य पर बन्दूक से निशाना साधने के लिए बन्दूक की स्थिरता परमावश्यक है। ठीक उसी तरह ईश्वर पर निशाना लगाने (ईश्वर को पाने) के लिए हमारे मन को एक स्थान पर टिका देना अति आवश्यक है। (Ashtanga Yoga)

अष्टांग योग (Ashtanga Yoga) का सातवां अंग — ध्यान

प्राय: मनुष्य अपने दैनिक कार्यों में इतना व्यस्त रहता है कि उसे यह भी बोध नहीं रहता कि उसे जीवन का अनुपम कार्य ध्यान करना है। कुछ मनुष्य अपने जीवन की व्यस्त दिनचर्या में से ध्यान के लिए कुछ समय निकालते हैं, परन्तु ध्यान में मन नहीं लगा पाते हैं। (Ashtanga Yoga)

ध्यान के लिए सर्वोत्तम समय सुबह चार बजे के आस-पास है। ध्यान की प्रक्रिया के अन्तर्गत स्थिरता व सुख पूर्वक बैठकर, आँखे कोमलता से बंद कर, दसों यम-नियमों का चिन्तन करते हुए यह अवलोकन करें कि आप पिछले दिन अपने व्यवहार को उनके अनुरूप कितना चला पाएं हैं।

तत्पश्चात मन को निर्मल करने के लिए प्राणायाम करें। उसके पश्चात अपने मन को शरीर के अन्दर किसी स्थान पर (देखें-धारणा) टिका कर स्वयं के अनश्वर चेतन स्वरूप होने व आपसे भिन्न इस शरीर के नश्वर होने पर विचार करें। ईश्वर की सर्वत्र विद्यमानता को महसूस करते हुए अनुभव करें कि आप प्रभु में हैं और प्रभु आप में हैं। प्रभु के गुणों का चिन्तन करते हुए यह महसूस करें कि उसके आनन्द, अभयता आदि गुण आपमें आ रहे हैं। (Ashtanga Yoga)

भूल से या अज्ञानता से यदि मन इधर-उधर जाए तो तत्काल मन को पुन:-पुन: धारणा स्थल पर टिकाकर प्रभु की पूर्ण निष्ठा, श्रद्धा, प्रेम व तन्मयता से चिन्तन करना है।

ध्यान का अर्थ कुछ भी न विचारना, विचार-शुन्य हो जाना नहीं है। जिस प्रकार पीपे (टिन) में से तेल आदि तरल पदार्थ एक धारा में निकलता है उसी प्रकार प्रभु के एक गुण (आनन्द, ज्ञान आदि) को लेकर सतत् चिन्तन करते रहना चाहिए। (Ashtanga Yoga)

जैसे सावधानी के हटने पर तेल आदि की धारा टूटती है। वैसे ही किसी एक आनन्द आदि गुण के चिन्तन के बीच में अन्य कुछ चिन्तन आने पर ध्यान-चिन्तन की धारा टूट जाती है। ध्यान में एक ही विषय रहता है, उसी का निरन्तर चिन्तन करना होता है।

ध्यान में निर्विषय होने का अभिप्राय यह है कि जिसका ध्यान करते हैं, उससे भिन्न कोईर्इ विषय नहीं हो।

ध्यान को ही उपासना कहा जाता है।

यधपि ध्यान का सर्वोत्तम समय सुबह का है फिर भी ध्यान दिन के किसी भी समय, कितनी ही बार किया जा सकता है परन्तु प्राणायाम को ध्यान की प्रक्रिया में तभी शामिल करें यदि वह समय प्राणायाम के नियमों के अनुकूल हो। (Ashtanga Yoga)

अष्टांग योग (Ashtanga Yoga) का आठवां अंग — समाधि

ध्यान करते-करते जब परोक्ष वस्तु का प्रत्यक्ष (दर्शन) होता है, उस प्रत्यक्ष को ही समाधि कहते हैं।
जिस प्रकार आग में पड़ा कोयला अग्नि रूप हो जाता है और उसमें अग्नि के सभी गुण आ जाते हैं। उसी प्रकार समाधि में जीवात्मा में ईश्वर के सभी गुण प्रतिबिंम्बित होने लगते हैं। (Ashtanga Yoga)

जीवात्मा का मात्र एक प्रयोजन मुक्ति प्राप्ति है और योगी इस प्रयोजन को समाधि से पूर्ण करता है।
उपसंहार-अब एक उदाहरण से यह समझाने का प्रयत्न करते हैं कि उस ईश्वर को प्राप्त करने में योगविद्या की क्या महानता है।

आत्मा में ज्ञान की क्षमता को असीम मानते हुए (ईश्वर के मुकाबले आत्मा में ज्ञान की क्षमता सीमित ही है) एक कुषाग्र बुद्धि वाला व्यकि तभी सौ वर्षों में अध्ययन आदि के माध्यम से केवल कुछ विषयों में ही परांगत हो सकता है जबकि इस सृष्टि में अनगणित और अन्तहीन विषय हैं।

सब विषयों को पूर्णतया जानना जीवात्मा के लिए वैसे ही असम्भव है जैसे समुद्र का सारा पानी एक कुंए में नहीं समा सकता परन्तु कुंआ समुद्र के पानी से लबालब भरा तो जा सकता है। इसी तरह समाधि के माध्यम से आत्मा को ज्ञान से लबालब भर दिया जाता है। (Ashtanga Yoga)

जिस भी विषय के लिए समाधि लगार्इ जाती है। उस विषय का ज्ञान आत्मा में आ जाता है। इस तरह समाधि के माध्यम से आत्मा अनगणित विषयों में परांगत हो सकता है।

यह कथन कि सारा ज्ञान अथवा सारे वेद हमारी आत्मा में हैं का तात्पर्य यह है कि ज्ञान स्वरूप परमात्मा हमरी आत्मा में पूर्णतया व्याप्त है परन्तु परमात्मा, जो ज्ञान का अथाह भण्डार है, को पाने के लिए हमें उचित ज्ञान चाहिए जो हमें योग्य गुरुओं द्वारा ही प्राप्त हो सकता है। (Ashtanga Yoga)

टिप्पणी (Note)

इस पोस्टमे हमने विज्ञान भैरव तंत्र (Vigyan Bhairav Tantra), पतंजलि योग सूत्र, रामायण (Ramcharitmanas),  श्रीमद्‍भगवद्‍गीता (Shrimad Bhagvat Geeta)महाभारत (Mahabhart)वेद (Vedas)  आदी परसे बनाइ है ।

आपसे निवेदन है की आप योग करेनेसे पहेले उनके बारेमे जाण लेना बहुत आवशक है । आप भीरभी कोय गुरु या शास्त्रो को साथमे रखके योग करे हम नही चाहते आपका कुच बुरा हो । योगमे सावधानी नही बरतने पर आपको भारी नुकशान हो चकता है ।

इस पोस्ट केवल जानकरी के लिये है । योगके दरम्यान कोयभी नुकशान होगा तो हम जवबदार नही है । हमने तो मात्र आपको सही ज्ञान मिले ओर आप योग के बारेमे जान चके इस उदेशसे हम आपको जानकारी दे रहे है ।

इसेभी देखे – ॥ भारतीय सेना (Indian Force)पुरस्कार (Awards)इतिहास (History)युद्ध (War)भारत के स्वतंत्रता सेनानी (FREEDOM FIGHTERS OF INDIA)

Leave a Comment